Saturday, April 25, 2015

छत्तीसगढ़ी माटी में विकसित राजस्थानी लोककथा (संदर्भ : ‘चरन दास चोर’)

‘लोक’ शब्द के अभिप्राय से जुड़ी कई भ्रांतियों का निवारण करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसका सटीक आशय स्पष्ट किया - “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों या ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में रहने वाले परिष्कृत रुचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अति सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं। परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।”1 ‘लोक’ शब्द के संकुचित अर्थ के दायरे को विस्तृत करते हुए साहित्य में वे ‘लोक’ पर विशेष ध्यान केंद्रित करते हैं, इसी कारण तुलसीदास की तुलना में वे कबीर को लोक के अधिक नजदीक पाते हैं, और शिष्ट साहित्य की तुलना में लोक साहित्य में वे मानवीय संवेदनाओं की सांद्र अभिव्यक्ति को महसूस करते हैं।
            लोक साहित्य जो कि युगों-युगों से मौखिक परंपरा से चली आ रही होती है, न इसके रचयिता का अक्सर पता चल पाता है और न ही रचनाकाल का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव हो सकता है। फिर भी इसकी खासियत यह है कि वर्तमान समय का व्यक्ति उसे अपने समय की उपज मानता है। चूँकि यह श्रुति परंपरा की देन है, इसलिए व्यक्ति उसमें अपने समय के अनुरूप संशोधित परिवर्धित करता रहता है। आज वैज्ञानिक युग में जबकि इसके संरक्षण हेतु अनेक प्रविधियां प्रयोग में लाई जा रही हैं, फिर भी उसमें परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन ही लोक साहित्य की ऐसी शक्ति है, जिसके कारण वह कई-युगों तक संरक्षित रह पाने में समर्थ हो पाता है और सहज ही लोगों की जुबान पर बना रहता है।
            साहित्य में ‘लोक’ तत्व को लेकर रंगकर्म में अभिनव प्रयोग करने वाले रंगकर्मी हैं- ‘हबीब तनवीर’। इन्होंने रंगकर्म के माध्यम से ‘लोक’ की ऊर्जस्विता को पहचानकर उसे सफलता की बुलंदियों पर पहुँचा दिया। छत्तीसगढ़ में प्रचलित नाचा में कलाकारों द्वारा तुरंत संवाद बना-बनाकर लोगों को हँसाते हुए कथानक को आगे बढ़ाते जाने की एक विशिष्ट परंपरा रही है। नाचा के दौरान कलाकार आंचलिक दृश्यों को प्रस्तुत करते हुए सेठ, महाजनों का स्वांग रचते हैं। दर्शकों को हँसाते-हँसाते गंभीर प्रकरण पर सोचने हेतु विवश कर देने की अद्भुत क्षमता इन कलाकारों के पास रहती है। नाचा के दौरान दर्शक अपनी जगह से टस-से-मस तक नहीं होते। नाचा के कलाकारों के इस गुणधर्म से हबीब तनवीर परिचित थे। इसी कारण बहुतेरे नाटकों में नाचा के कलाकारों के साथ वे काम किये। लोक प्रचलित कहानियों को सुनाकर उसमें नाटक के सारे तत्व अभिनय की प्रयोगशाला से प्राप्त करते थे। नाटक ‘चरन दास चोर’ की भूमिका में उन्होंने इसका जिक्र किया है, “1973 में रायपुर नाचा वर्कशॉप में पहली बार सीखा था जिसके नतीजे में ‘गाँव के नाँव ससुरार मोर नाँव दामाद’ जैसा नाटक निकलकर आया था। सबक़ ये था कि कभी किसी वर्कशॉप के लिए सारी बातें पहले से सोचकर मत जाओ। इलाक़े में पहुँचकर वहाँ के हालात देखो, कलाकारों को मंथन में डालो, और इन्हीं परिस्थितियों से जो प्रेरणा मिले और जो कहानी उत्पन्न होती नज़र आए, बस उसके सहारे आगे बढ़ते चलो यही एक रास्ता है !”2 यही कारण है कि इनके नाटकों के में लोक-पक्ष घनीभूत हो उठा है :
“गुरुजी : तोर में का एब हे बेटा ?
रामचरण : मोर में कोई एब नइ हे गुरुजी (बीड़ी निकालता है, पीता है और बीड़ी का सारा धुआँ गुरुजी के मुँह 
               पर आता है)
गुरुजी : अरे बिना एब के आदमी तो आज तक संत अखाड़ा में नइ आये हे तैं कहां से आगेस रे (खांसी आती है धुएं 
           के कारण) बेटा रामचरण ये कहां के धुआँ ? ये बाबू सब नाक कान में घुसगे रे ?
रामचरण : पावर हाऊस के होही जी3
            छत्तीसगढ़ में भिलाई और उनके आसपास नाचा का ऐतिहासिक महत्त्व रहा है। स्टील प्लांट भिलाई में स्थित पावर हाऊस से पूरे प्लांट में बिजली सप्लाई किया जाता रहा है। पावर हाऊस से निकलने वाला धुआँ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर कितना घातक प्रभाव डाल रहा था और इसकी तुलना में बीड़ी से निकलने वाले धुएँ का दुष्प्रभाव कितना बौना साबित होता है; व्यंग्य के माध्यम से चित्रित हो जाता है। और ये सारे संवाद गवंई जन-जीवन में सहज उद्‍भूत वाक्‌पटुता के साथ प्रकट होती है।
            हबीब तनवीर थिएटर में पाश्‍चात्य शैली से कभी प्रभावित नहीं हुए। न ही कभी सफलता के ऊँचे मकाम हासिल करने के लिए उसका नकल किया। रंगकर्म में आंचलिक जीवन की छाप को वे विशेष तवज्जो देते रहे। वे कहते हैं, “थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग यह देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर है, थिएटर के सारे लवाज़मात तत्त्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मज़ा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा थिएटर ख़ुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे। यानी थिएटर में इलाक़ाइयत (आंचलिकता) का दामन न छोड़ते हुए विश्‍व स्तर पर पहुँचना कामयाब थिएटर की कुंजी है।”4  ठेठ आंचलिकता के कारण महत्वहीन समझकर पहले जिसे लंदन के कामनवेल्थ थिएटर में प्रदर्शन पर हमारी सरकार विरोध कर रही थी। उसी का जब लंदन के सारे प्रमुख अख़बार में ‘चरन द्‍ थीफ़’ नाम से रिव्यु प्रकाशित होने लगा, सरकार भी तारीफ़ें करने लगी।
            बहरहाल लोक प्रचलित नाचा पर अभिनव प्रयोग करते हुए उसे वैश्‍विक पटल पर स्थान दिलाना कोई सहज काम नहीं है। आत्मविश्‍वास के साथ-साथ दृढ़ लगन व परिश्रम की जरुरत होती है। आंचलिक बोली में प्रस्तुत संवाद से उनमें कभी हीनता बोध नहीं हुआ, इसके विपरीत छत्तीसगढ़ी उनकी भाषाई अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गई। भाषाई हीनता से पीड़ित व्यक्ति अपने आंचलिक परिवेश से कटने लगता है। लोकमंगल के विधान की सशक्त अभिव्यक्ति में कमी का कारण भी यही भाषाई हीनताबोध ही है। हबीब तनवीर इन धारणाओं से कोसों दूर थे। उनके लिए लोक ही सर्वोपरि रहा-
            “दुनिया में बादशाह है सो वह भी आदमी
            और मुफलिसो-गदा है सो है वह भी आदमी
            काला भी आदमी है और उल्टा है ज्यूं तवा
            गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा-सा चांद का
            बदशक्लो-बदनुमा है, सो है वह भी आदमी”5
            आदमी-आदमी में किए जाने वाले विभेदों को भुलाकर लोक को सर्वोपरि मानने वाला नज़ीर का यह संदेश हबीब तनवीर के साथ ही रेणु के व्यक्तित्व की भी याद दिलाता है। ‘कवि की यात्राएँ’ में रघुवीर सहाय लिखते हैं, “रेणु ने दूसरों में ऐसे किसी दम्भ को कभी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं पाया कि या तो जवाब में कोई आंचलिक मुद्रा अपनाते या तथाकथित महानगरी साहित्य की नक़ल करने लगते। उनके लिए लोग ही सत्य थे-वहाँ तक सत्य जहाँ तक वह उन्हें जानते थे और उनसे एक हो सकते थे-चाहे वे कहीं के रहनेवाले हों। यह आस्था उनमें आजीवन बनी रही।6
            सामंतवादी व्यवस्था किस प्रकार शोषण करती आ रही थी इसका स्पष्ट चित्रण नाटक ‘चरन दास चोर’ में हुआ है। मालगुजार सेतुवावाले का सेतुवा और पैसे छीन लेता है, नौबत भूखों मरने की आ गई है। चरन दास की बातों से बल पाकर मालगुजार के पास सेतुवावाला चला जाता है। दृश्य है-
“चोर : अइसे लगाहूं खिंच के तोर सारी जम्हड़ा झड़ जाही जा एक धांव अउ मांग के देख
सेतुवावाला : तैं इही मेर खड़े रबे ना ?
चोर : हव
            (सेतुवावाला घबराते-घबराते जाता है और मालगुजार की गद्दी पर बैठ जाता है)
मालगुजार :  आ... मोर मुंडी उपर बइठ जा
सेतुवावाला : गलती होगे मालिक
मालगुजार : गलती नइ होये रे तुमन आदमी ला चिन्हव नइ !7
            एक तो चोरी ऊपर सीनाजोरी यह कि सेतुवावाला गद्दी में जैसे ही बैठा दुत्कार दिया गया। ऐसी सामंतवादी व्यवस्था जिसमें आम आदमी की गलती यह है कि उसका सब कुछ छीन जाने के पश्‍चात्‍ भी छीनने वाले से सलीके से व्यवहार न करने पर स्वयं लज्जित महसूस कर रहा है।
            दृश्य : तीन के अंत में मंदिर के सारे सामानों के साथ मूर्ति चोरी हो जाने पर आसपास में यह प्रकरण जंगल की आग की तरह फैल जाती है। छत्तीसगढ़ में सुआ गीत के माध्यम से अपने समय की विडंबनाओं का बखान करने की परंपरा है। इसलिए मूर्ति चोरी हो जाने की कथा भी सुआ गीत में शामिल हो गई है-
            “तरीच नारी नाहा ना मोर नाहा नारी ना ना रे
            सुआ हो तरी ओ नारी नाहा नारी ना
            नारे सुआ हो तरी ओ नारी नाहा नारी ना
            का कहइबो या सोचेला होगे
            कइसे ढंग बताबो दीदी परोसिन, छोड़त नइये वोहर एको खोर
            परोसिन देख तो बहिनी आवत हाबे चोर
            परोसिन देख तो बहिनी आवत हाबे चोर sss तरीच नारी...”8
            गुरु के साथ मजा-मसखरा करते हुए किए गए चार वचनों को अंत तक निभाते रहने और कभी झूठ न बोलने के कारण राजतंत्र की व्यवस्था चोर की जान ले लेती है। उसे झूठ बोलने के लिए बाध्य किया जाता है। तरह-तरह के लोभ और लालच के जाल में फंसाने की कोशिश की जाती है। झूठ की शरण में जाकर सत्ता सुख भोगने के बरअक्स वह सचाई की राह पर चलकर मौत का वरण कर लेता है।
             तो ऐसे नाटक के मंचन पर 2009 में छत्तीसगढ़ सरकार ने रोक लगा दिया। दलील यह दिया गया कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र ऐसा किया गया है। इस पर पर्दाफाश करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण बताते हैं, “मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'। हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये। 'चरणदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है। एक अदना सा चोर गुरु को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरु द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है। चरणदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं। वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है। नाटक में चरणदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल में मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है। एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्‍चा निकलता है। ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है।... कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरों के पक्ष में  व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सत्ता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा ? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं।”9 गुरु को दिए गए चार वचनों के पालन करते समय चोर (चरन दास) अनजाने ही सत्ता के वाम-पक्ष में अपने को खड़ा पाता है। जिसके कारण लोक की चिंताओं के बरअक्स सत्ता का लुभावना रूप उसे नहीं सुहाता। सत्ता का सर्वाधिकार अपने पक्ष में सुरक्षित रखने का सबसे सशक्त माध्यम क्या ये चारों वचन नहीं हैं ? अपने को श्रेष्ठ साबित करने का एक विधान हमारे भारत में हाथी पर बैठकर जुलूस निकालना रहा है। ताकि इसी बहाने मसीहाई बाना का खुमार लोगों के सामने बना रहे। हबीब तनवीर के इस नाटक से पूर्व बालमुकुन्द गुप्त अपने निबंधों में ब्रिटिश शासन पर तीखा व्यंग करते हैं । लार्ड कर्जन द्वारा हाथी पर बैठकर जुलूस निकालने की घटना का जिक्र करते हुए निबंध ‘श्रीमान्‌ का स्वागत’ में कहते हैं, “विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिंदुस्थान क्या है ! हिंदुस्थान को श्रीमान्‌ स्वयं ही समझे हैं । विलायत वाले समझते तो क्या समझते ? विलायत में उतना बड़ा हाथी कहाँ जिस पर वह चंवर छत्र लगाकर चढ़े थे ? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्‍च श्रेणी के शासक हैं ? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारत को विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायत वालों को समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान्‌ का शासन क्या ?”­­10 एक अन्य निबंध ‘वैसराय का कर्तव्य’ में वे इसकी पुरातन परंपरागत रूढ़ मान्यता की उस सीढ़ी तक पहुँच जाते हैं, जब देश की “प्रजा एक दिन पहले रामचंद्र के राजतिलक पाने के आनंद में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचंद्र बन को चले तो रोती रोती उनके पीछे जाती थी । भरत को उस प्रजा का मन रखने के लिए कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियों का जुलूस नहीं निकालना पड़ा, बरंच दौड़कर बन में जाना पड़ा ।”11 देश की राजतंत्रात्मक व्यवस्था के मूल में अपने को असाधारण रूप से ऊँचा दिखाने की यह प्रथा निहित थी और स्वाधीनता के बाद भी लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में सत्तासीन इन्हीं बातों का अनुकरण करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा इसे प्रतिबंधित करने का एक और कारण सत्ता और जनता के बीच बनाए जा रहे इसी आडंबरयुक्त दुराव को मान सकते हैं ।
            खैर इन तथ्यों के बरअक्स जब हम नाटकचरन दास चोरको पढ़ते हैं, तब हमें नाटक के शुरुआत का  गीत याद आता है, “सत के तराजू में दुनिया ला तौलो हो...2/ गुरुजी बताइने सच सच बोलो हो...2/ सच के बोलइया मन हावे दुई चार/ वही गुरु हे हमार...”12 यह वही सच है जिस पर चलते-चलते एक मामूली-सा चोर गैर-मामूली बन जाता है, जिससे पूरी सत्ता-व्यवस्था की चूलें हिल जाती है। इस दौरान वह चोर रानी का चित्त चोर बन जाता है और लोकजन से आत्यंतिक लगाव के कारण अंत तक आते-आते वह सबका चित्त चोर बन जाता है । तब अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपने प्रेमी की नृशंस हत्या ही रानी को तार्किक लगती है। इसीलिए हबीब साहब कहते हैं, “मेरे नज़दीक नाटक का विषय यही था कि सच्‍चाई का दामन पकड़े रहना जान जोखिम में डालना है। अगर यही हश्र सुक़रात का हुआ, ईसा मसीह का हुआ, और फिर एक मामूली चोर का भी यही अंजाम हुआ तो उसका दर्जा किसी महापुरुष से कम नहीं है।”13
संदर्भ
1. जनपद, अंक 1952, पृ. 65
2. चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय आवृत्ति संस्करण 2008/ पृ. 9
3. वही/ पृ. 36
4. वही/ पृ. 24
5. आगरा बाज़ार/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ 2005/ पृ.108
6. ऋणजल धनजल/ फणीश्‍वर नाथ रेणु/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/ पाँचवाँ संस्करण 2005/ पृ. 12
7. चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय आवृत्ति संस्करण 2008/ पृ. 46
8. वही/ पृ. 54
9. हद है! अब 'चरण दास चोर' पर प्रतिबंध/ प्रणय कृष्ण/ कबाड़खाना (वेब पत्रिका)/ 9 अगस्त 2009
10. निबंधों की दुनिया : बालमुकुन्द गुप्‍त/ संपादन : रेखा सेठी/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ प्रथम संस्करण  
       2009/ पृ. 26
11. वही/ पृ. 30
12. चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय आवृत्ति संस्करण 2008/ पृ. 29
13. वही/ पृ. 27


       शोध-प्रकल्प (ISSN 2278-3911) त्रैमासिक रिसर्च जर्नल के सेमीनार विशेषांक अंक में प्रकाशित ।

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