Monday, October 13, 2014

इससे पहले कि आदिवासियों पर अंधेरों की हुकूमत हो जाये...


                     आदिवासी ‘फोकलोर’ का ही यदि गहन अध्ययन किया जाए तो सदियों से उन पर होते रहे अत्याचार, शोषण व अमानवीय घटनाओं का ऐतिहासिक अंबार-सा लग जायेगा। इसलिए कथाकार उदय प्रकाश अपनी कहानी ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के माध्यम से ‘फोकलोर’ में मौजूद आदिवासी नायकों के संघर्ष की कथा को जानने समझने की वकालत करते हैं। वे बताते हैं, “आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं. वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते हैं. सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते हैं और सिर्फ कच्‍ची, भुनी या उबली चीजें खाते हैं. तेल में फ्राइ करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य हैं. अपनी स्वायत्तता और संप्रभुता के लिए उन्होंने भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान संघर्ष किया था. लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया. इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है... जो वर्ग, जाति या नस्ल सत्ता में होती है, वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का लिख जाना अभी बाकी है.”1   
            ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष से हम सब भली-भाँति परिचित हैं। फिर भी आजादी के बाद वे जस के तस जीवन जीने को मज़बूर हैं, और वर्चस्वकारी प्रभु-वर्ग खाद-पानी से लहलहाते पौधे की तरह बढ़ गये। सुविधा-संपन्नता के इस तकनीकी युग में आदिम यथास्थिति की जिंदगी भी उन्हें नसीब नहीं होता। प्रकृति तो इनसे छीन ही ली गई है। घर से भी विस्थापित कर दिये गये हैं। इन सब के विरूद्ध वे आवाज उठाते हैं, लेकिन बड़ी चालाकी के साथ उसे दबा दिया जाता रहा है। इसलिए अब तक का सारा इतिहास एकांगी है।
             कूटनीति और राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण केवल सत्ता पक्ष का ही इतिहास निर्मित होता आया है। जब तक समाज-दर्शन सर्वांगपूर्णता पर आधारित नहीं होगा, समाज में एक वर्ग हमेशा प्रभु वर्ग बनकर दूसरे वर्ग का शोषण करता रहेगा व एकांगी इतिहास रचता रहेगा और पराजित जाति का रुदन इतिहास के पन्‍नों से बाहर अरण्य में विलीन होती रहेगी। वह चाहे प्राचीन अमेरिका के इंका, माया, एज्‍टैक और सैकड़ों रेड इंडियन्स हों या भारत के कोल, किरात या असुर जनजाति। उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में रणेन्द्र बताते हैं, “शायद मुख्यधारा पूरा निगल जाने में ही विश्‍वास करती है।...छाती ठोंक-ठोंककर अपने को अत्यंत सहिष्‍णु और उदार कहनेवाली हिन्‍दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी भी जगह नहीं छोड़ी थी। वे उनके लिए बस मिथकों में शेष थे। कोई साहित्य नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई अजायबघर नहीं। विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत मात्र नहीं।”2
            बाज़ार में नमक के एवज में गोंद, बीज, तेंदुपत्ता, करील व बांस की टोकरियाँ जैसी बहुमूल्य वस्तुओं को लेकर व्यापारी धनकुबेर बन बैठे हैं। इससे भी जब मन नहीं भर पाता। महादेव टोप्पो कहते हैं, तब :
            “लेकर सादे कागज़ में अंगूठे का निशान
            रचते रहे हमारे विरूद्ध षड़यंत्र
            लेकिन इन सब से अनजान
            अपनी झोपड़ियों में
            करते रहे हम तुम्हारा स्वागत
            करते रहें तुम्हें जोहार”3
                                           (फिर भी हम कहते रहे हैं तुम्हें जोहार)
            बावजूद इसके वह चुप्पी साधकर बैठ नहीं गया है, लगातार संघर्षरत है। उड़ीसा में बॉक्साइट खनन का इरादा लिए जब वेदांता कंपनी ने नियमगिरि में ‘प्लांट’ स्थापित करना चाहा। नियमगिरि के आसपास रायगड़ा और कालाहांडी जिलों के 12 गावों में बसे कोंध आदिवासियों ने इसका उग्र विरोध किया। ग्रेस कुजूर ऐसे शोषण तंत्रों के ख़िलाफ़ ‘एक और जनी शिकार’ में आक्रामक होकर अपने संगी-साथियों को समझाते हुए कहती हैं :
            “ए संगी !
            क्यों घूमते हो
            झुलाते हुए खाली गुलेल
                +       +       +
            क्या तुम्हें अपनी धरती की
            सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही ?”4
            नियमगिरि उनका ‘पवित्र पर्वत’ है। जो सिर ढकने के लिए उन्हें छत मुहैया कराती है, उनकी प्यास बुझाती है और दो-जून की रोटी भी इसी से मिलती है। इसलिए सर्व सम्मति से खनन परियोजना का विरोध करते हुए कोंध आदिवासी कहते हैं, “हम नियमगिरि पहाड़ियाँ किसी के हवाले नहीं होने देंगे, चाहे वह कोई कंपनी हो या सरकार या कोई आदमी।”5
            वनाधिकार को लेकर औद्योगिक घरानों व आदिवासियों के बीच सरकार ग्राम-सभा आयोजित करती रही है। आदिवासी इसमें भी छले ही जाते हैं। “मध्यप्रदेश के सिंगरौली में महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम) को जंगल आबंटित करने के संबंध में वनाधिकार कानून 2006 के तहत मार्च 2013 में ‘ग्राम-सभा’ का आयोजन किया गया था। जिसमें सिर्फ़ 184 लोग उपस्थित थे। जिसे षड़यंत्र-पूर्वक फ़र्ज़ी तरीके से महान कोल लिमिटेड ने अपने पक्ष में बदल दिया। आर. टी. आई. के तहत मिली जानकारी में उक्त ‘ग्राम-सभा’ में पारित प्रस्ताव में 1125 लोगों के हस्ताक्षर हैं। इन हस्ताक्षरित नामों में से 9 ऐसे लोग हैं जिनकी मृत्यु सालों पहले हो चुकी है।”6 सच्‍चाई जगजाहिर है। इसिलिए महादेव टोप्पो आगे फिर कहते हैं :
            “आखिर किन-किन रूपों में हम तुम्हें पहचानें
            क्योंकि हमने तुम्हारे जिस भी रूप को माना सच
            उसी रूप ने किया है हमारे साथ विश्‍वासघात
            फिर भी हम कहते रहे हैं तुम्हें जोहार ! जोहार! जोहार !” 7
            तो ऐसी दयनीय शनिश्‍चरी दशा के प्रकोप से बचाने के लिए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में आज महती भूमिका अदा कर रही हैं। ‘डोंगरिया कांध और नियमगिरि से जुड़े प्रश्‍न’ में रवीन्द्र त्रिपाठी कहते हैं, आदिवासियों के “प्रतिरोध आंदोलन को तेज़ करने में और विश्‍व जनमत का ध्यान इस तरफ़ आकृष्ट करने के लिए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी भूमिका रही है। इन फ़िल्मों ने वो काम किया है जो अक्सर अख़बारों और टीवी चैनलों का है। पिछले कुछ वर्षों में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की विधा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरी है जो समाज के वंचित और सीमान्त लोगों के संकटों से विश्‍व जनमत को परिचित करा रही है।”8 इन डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की अपनी एक सीमा है। शिक्षा संस्थानों, फ़िल्म उत्सव जैसे जगहों पर साल भर में एकाध बार प्रदर्शनी लगाकर उनकी आर्थिक तंगहाली दिखलाकर अधिकांश जगहों पर तो फ़िल्म संचालक पुरस्कार और सहानुभूति अपने लिए बटोरकर ले जाता है। चाहे बैंक हो, तहसील ऑफ़िस, सरकारी, अर्ध-सरकारी या प्राइवेट महकमा कहीं भी नागरिक की हैसियत से गिनती नहीं होती। उनके पास पैसे नहीं है इसलिए आवाज़ नहीं है। सब जगह से दुत्कार ही मिला है। विरोध करें, आवाज़ उठायें तो ऑफ़िस का एक अदना-सा कर्मचारी तक ‘यू थर्ड पर्सन सिंग्यूलर नंबर’ (फालतू आदमी) की डांट-डपट से भगा देता है।
            विकास के नाम पर आदिवासी बहुल इलाकों में तमाम तरह की फैक्ट्रियां लगाई जा रही हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले को ही देख लिजिये। आज से दस वर्ष पूर्व पहाड़ी इलाकों, आदिवासियों के हस्तशिल्प मूर्तियों, गुफाओं की भित्ति पर उकेरी गई प्राचीन चित्रों व रामझरना जैसे तमाम प्राकृतिक संसाधनों के लिए वह जानी जाती रही। आज पूरा का पूरा दृश्य ही बदल चुका है। जिंदल इस्पात व स्टील प्लांट के स्थापित होने से लेकर शुरू हुआ यह उपक्रम अब अनेक स्पंज आयरन की फैक्ट्रियों, पॉवर प्लांट, मिल व रिफाइनरी औद्योगिक क्षेत्र में तब्दील हो चुका है। प्रकृति की गोद में बसे इस जिले का दम घुटने लगा है। पेड़-पौधों की पत्तियों पर हमेशा कोयले का एक पर्त चिपका रहता है। अनियंत्रित पत्थर उत्खनन के कारण चारों ओर धूल की पर्त जम गई है। फैक्ट्रियों की चिमनियां इतनी नज़दीक हैं कि उससे निकलने वाले धुएं का गुबार हमेशा वहीं मंडराते रहता है। उद्योगों का सारा कचरा जहां-तहां फेंक दिए जा रहे हैं । जंगल धीरे-धीरे कम पड़ जाने से हाथियों का आतंक गॉव-देहातों पर फैलता जा रहा है। किसान हितों की आड़ में नहर परियोजना का उद्‍घाटन इन उद्योगों को पानी सप्लाई करने के उद्देश्य से किया जाता रहा है। कुल मिलाकर पूरा प्राकृतिक वातावरण तबाह हो चुका है। केलो नदी का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि कभी-कभी तो सैकड़ों क्‍विंटल मछलियां तड़प-तड़प कर मर जाती हैं। वैश्‍विक पटल के संगठनों  की कुटिलता से हतप्रभ आदिवासी नेता व विचारक डॉ. रामदयाल मुण्डा एक साक्षात्कार में कहे थे, “आश्‍चर्यजनक तथ्य यह कि औद्योगिक कचरे से, धूल-धक्‍कड़ से जेनेवा की टाईन नदी, लंदन की टेम्स या अमेरिका की मिसीसिपी जहरीली नहीं हो रही हैं, जहरीली हो रही हैं हमारी गंगा, दामोदर और सुवर्णरेखा। विश्‍वबैंक का पैसा वहां नदियों को साफ कर रहा है और हमारे यहां की नदियों को गंदा।”9
            छत्तीसगढ़ में जब कहीं कोई उद्योग या पॉवर-प्लांट लगा रहा होता है; किसान, दलित और आदिवासी बड़ी आशा के साथ उसे स्थापित होते देखते रहते हैं। अपने बच्‍चों के भविष्य और रोजगार की सारी चिंता दूर हो जाने का भान होता है। उनके बच्‍चे चाहे साहित्य में अध्ययनरत हो अथवा चिकित्सा, तकनीकी, कला या इंजिनियरिंग क्षेत्र में। उन्हें लगता है हमारे क्षेत्र के पूरे विकास का दायित्व जब उसने ले रखा है, तब बच्‍चों की नौकरी भी प्लांट में ही लगवा देगा। अशिक्षा और गरीबी ऐसी मानसिकता में बद्धमूल है। इसलिए हमेशा वे शोषित और उपेक्षित होते आए हैं।           
            ‘शिक्षा का अधिकार’ मूल अधिकार का दर्ज़ा ले चुकी है, प्रत्येक राज्य इसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इसके बावजूद खासतौर से आदिवासी आज भी इस अधिकार से वंचित ही हैं। इसी से वे बद से बदतर जिंदगी जीने को विवश हैं। रक्षक ही जब भक्षक बन जायें, तब सुधार की उम्‍मीद कैसे की जा सकती है? कांकेर जिले के नरहरपुर ब्लॉक के झलियामारी गाँव में स्थित आदिवासी कन्या आश्रम में शिक्षण सत्र 2012-13 के दौरान पहली से पांचवीं तक पढ़ने वाली 46 छात्रायें, जो महज पांच से बारह साल की नाबालिग थीं। इनको पढ़ाने वाले एक शिक्षाकर्मी मनु गोटी और चौकीदार दीनानाथ नागे द्वारा लंबे समय से इनमें से 11 छात्राओं के साथ यौन-शोषण करते आ रहे थे। मारपीट व डरा धमकाकर उन्हें किसी से न बताने के लिये विवश कर दिया गया। गुरुर का सुरुर इतना था कि इस मामले की जानकारी जब आश्रम अधीक्षिका बबीता मरकाम और एक अन्य शिक्षक को हुई तब उन्होंने आदिवासी छात्राओं को ही चुप कराना मुनासिब समझा। गाँव के उपसरपंच तक जब इस मामले की जानकारी पहुंची, आरोपियों पर अर्थदण्ड लगाकर उसने अपने कर्तव्य का इतिश्री कर दिया। शिक्षा विभाग के कर्मचारी तो जानकर भी अनजान बने रहे। औचक निरीक्षण में पहुँचे कलेक्टर ए मंगई डी को इन पीड़ित आदिवासी छात्राओं ने जब रो-रोकर अपने साथ हो रहे इस घोर नाइंसाफ़ी व दुष्कर्मों की जानकारी दीं, तब कहीं प्रशासन सचेत हो सका।
            आदिवासियों को न्याय आज भी अचानक प्रकट होने वाले देवताओं की तरह किसी न्यायधर्मी बड़े अधिकारी के औचक निरीक्षण पर ही मिलता है। जहाँ सहजता से न्याय सुलभ न हो वहाँ इसी तरह व्यभिचार फलता-फूलता रहता है। शोषण का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। इनके साथ हो रहे लूट-मार, विस्थापन, बेगारी तथा बलात्कार और सामूहिक दुष्कर्म इत्यादि अमानवीय घटनायें इसके प्रतिफलन हैं। इनकी मासूम बच्‍चियों के साथ यौन शोषण की घटना का जिक्र उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में भी हुआ है। शिवदास बाबा द्वारा संचालित कोयलेश्‍वर आश्रम वाले आवासीय विद्यालय में कविता-नमिता के साथ घटित होने का यह मामला जब डॉक्टर साहब समझ जाता है। तब वह भुनभुनाने लगता है, “डायन भी सात घर छोड़कर खाती है, लेकिन ई बबवा साला राक्षस है राक्षस। जरूर ई बच्‍ची लोग को रात में पैर दबाने के लिए बुलाया होगा। उसके बाद ही छोटी बच्‍चियाँ पथरा जाती हैं। दर्जनों ऐसे केस उस आश्रम में मैं देख चुका हूँ। लाज, शरम, भय सब घोलकर पी गया है हरामी।”10
            छत्तीसगढ़ में कुछेक जनजातियों के समक्ष एक अलग ही समस्या है, ‘जाति-सत्यापन की समस्या’। छत्तीसगढ़ सरकार ने कई आदिवासियों को केवल हिंदी के शब्दों में हेर-फेर के कारण ही उन्हें आदिवासी मानने से इंकार कर दिया है। यथा सौंरा, सौरा, संवरा, सवरा, सउरा, संहरा। इसी प्रकार पोबिया, पबिया, पाव, पाप जैसे लेखनी की भूल को ही आधार मानकर उन्हें सिरे से नकार देना कैसा न्याय है ! जाति सत्यापित न हो सकने से उन्हें आरक्षण व छात्रवृत्ति का लाभ नहीं मिल पाता। आर्थिक तंगी से वे उचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण उनमें जागृति, चेतना, स्वास्थ्य व आर्थिक स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। बेरोजगार घूम रहे आदिवासी युवक के पूरे परिवार की उम्मीदें उससे जुड़ी हुई हैं। लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में कहें तो उसके रोजगार के लिये :
            ‘‘.......उसकी माँ
            सुई की नोंक पर
            अभी झड़ पड़ने वाली
            पानी की बूँद की तरह इंतज़ार कर रही थी”11
             19 मार्च 2012 को रायपुर में प्रदेश स्तरीय सर्व आदिवासी महासम्मेलन का शांतिपूर्ण आयोजन रखा गया था। ‘एक तीर एक कमान, सब आदिवासी एक समान’ की भावना लिये सारे आदिवासी अपनी छोटी-छोटी मूलभूत समस्याओं को लेकर टिकरापारा रायपुर में स्थित गोंडवाना भवन में अपनी पारंपरिक वेशभूषाओं के साथ तीर-धनुष, भाला, बल्लम, गंडासा लिये एकत्र होकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपने जा रहे थे। मुख्यमंत्री के आदेश पर रायपुर पुलिस महानिरीक्षक मुकेश गुप्ता और पुलिस अधीक्षक दीपांशु काबरा ने उन पर जमकर लाठियां बरसाईं। उनके धार्मिक आस्था का केन्द्र गोंडवाना भवन पर भी उत्पात मचाया गया और वहां सब कुछ तितर-बितर कर दिया गया। उनमें से 74 आदिवासियों को जेल नसीब हुई। आदिवासियों के नेताओं तक को जब नहीं बख़्शा गया तो अन्य की कैसी स्थिति रही होगी ? उनकी बात सुनने वाला, उनकी पक्षधरता करने वाला आज पर्यंत कोई नहीं है। वे सदियों से उपेक्षित व अपमान की अभिशप्‍त जिंदगी जीने को विवश हैं। आदिवासियों के लिये बेहद जरूरी व सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है, अन्यथा निराश और हताश जिंदगी जीते-जीते उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा।   

          

             संदर्भ-ग्रंथ
1. पीली छतरी वाली लड़की/ उदय प्रकाश/ वाणी प्रकाशन/ नयी दिल्ली/ आवृत्ति 2011/ पृ. 14
2. ग्लोबल गाँव के देवता/ रणेन्द्र/ भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली/ पहला संस्करण 2013/ पृ.
    33
3. समकालीन आदिवासी कविता/ सं. हरिराम मीणा/ अलख प्रकाशन, जयपुर/ प्रथम संस्करण 2013/ पृ.
     78
4. वही/ पृ. 20
5. संघर्ष संवाद, वेब पत्रिका, जुलाई 30, 2013
6. वही/ जुलाई 24, 2014
7. समकालीन आदिवासी कविता/ सं. हरिराम मीणा/ अलख प्रकाशन, जयपुर/ प्रथम संस्करण 2013/ पृ.
     80
8. नया ज्ञानोदय/ सं. : लीलाधर मंडलोई/ अंक 137/ जुलाई 2014/ पृ. 98
9. आदिवासियों को मिटाने की साजिश/ जनसत्ता/ सितम्बर 29, 2013/ पृ. 3
10.  ग्लोबल गाँव के देवता/ रणेन्द्र/ भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली/ पहला संस्करण 2013/ पृ. 
     69

 11. बची हुई पृथ्वी/ लीलाधर जगूड़ी/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/ 1991/ पृ. 106