Thursday, June 12, 2014

काली पीठ के बल पर...

एक तीर एक कमान, सब आदिवासी एक समान
         छतीसगढ़ के आदिवासियों की इस मान्यता को उनका बीजवाक्य या नारा जो चाहे माना जा सकता है। प्रकारांतर से यह कथन आधुनिक भारतीयता के उस महान सूत्र से भी एकाकार हो उठता है, जिसे अदम गोंडवी गजल में कहते हैं:
            "हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
             दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए"

            लेकिन एकीकरण की ऐसी निष्ठा के बावजूद आज मुठ्ठी भर लोग उन पर काबिज हैं। इसका कारण है, उनकी सरलता, भोलापन और सहजनिष्ठा के कारण किसी कुटिल से कुटिल व्यक्ति पर भी विश्वास कर लिया जाना’। इसीलिए जब उन्हें छले जाने का भान होता है और उनमें चेतना आती है, तब तक वे कई जटिल समस्याओं से घिर चुके होते हैं, जिससे मुक्ति की कामना लिए वे लड़ते-लड़ते अधप्राण तो क्या निष्प्राण तक हो जाते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश के समुचित विकास के लिए सर्वप्रथम सोनभद्र में रेणु नदी पर 1958 में रिहंद बांध परियोजना प्रस्तावित हुई। तब “देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी। उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई”।1 विस्थापन के शुरुआती दौर में विकास के नाम पर प्रधानमंत्री द्वारा किये गए आह्वान पर लोगों ने वाकई बलिदान दिए थे। बसा-बसाया घर और उपजाऊ जमीन छोड़कर पुन: एक नये सिरे से घर और जमीन तैयार करना पड़ा।
            नई जगहों पर लोग जड़ें जमा ही रहे थे कि एक दशक बाद तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दीं। फिर परियोजनाओं का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा।2 पहले-पहल विस्थापन के बदले प्रदान की जाने वाली पुनर्वास सुविधाएं कालांतर में भ्रष्ट-राजनीति और शोषण का शिकार बन गईं। नदी किनारे प्रस्तावित परियोजनाएं अब जंगली क्षेत्रों की ओर अभिमुख होने लगीं। इन क्षेत्रों में उपस्थित कोयला, लौह अयस्क और बॉक्साइट जैसी संसाधनों पर कब्जा करते हुए निर्बाध गति से कंपनियाँ दोहन करने में जुट गईं। आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल तो हुए ही, प्राकृतिक संसाधनों से भी निराश्रित कर दिए गए। आदिवासियों की इस स्थिति को मुनव्वर राना रेखांकित करते हुए कहते हैं :
            “बुजना हूँ  तो  दीजिए  मुझे  मेरा  जंगल
            गर आदमी हूँ तो छुड़ाइए इन मदारियों से”
            आलम तो यह है कि आज इन्हें न आदमी समझा गया और न ही बंदर। अपनी ही जल, जंगल और माटी से बेदखल आदिवासियों के काले पीठ के बल पर विभिन्न प्रकार की परियोजनाएं और छोटी-मोटी तमाम फैक्ट्रियाँ स्थापित की गईं। परिणामस्वरूप विशाल भव्याकार महलें भी इन्हीं आदिवासियों की जमीन और श्रमबल पर बना लिए गए। जिसमें कि स्वयं आदिवासियों का ही अंत में प्रवेश तक वर्जित कर दिया गया। शोषण की इससे बड़ी और दयनीय स्थिति क्या हो सकती है? आदिवासी क्षेत्रों में आज नक्सलवाद भी एक नासूर बन गई है। इसके संदर्भ में कारण खंगालते हुए रमेशचन्द्र मीणा नक्सलवाद है तो गांधीवाद क्यों नही? निबंध में लिखते हैं, “जब आदिवासी में व्यवस्थागत शोषण, दमन व अन्याय सहने की ताकत खत्म हो जाती है, पेट की भूख असहनीय हो उठती है तब ही आदिवासी नक्सलवादियों के तर्क से सहमत होने पर मजबूर होते हैं। पहले ही कहा है बभूक्षितम्‍ किम न करोती पापम्‍ लगातार अन्याय का शिकार भूखा आदिवासी जब बंदूक उठाता है तब समझना चाहिए कि बंदूक उसके लिए अंतिम और आखिरी रास्ता ही होती है, जब उनके जीने कोई विकल्प ही नहीं बच पाता है।”3
            नक्सलवाद से बचने के लिए सरकार हिंसक रास्ता अख्तियार कर रही है। सरकारी महकमा इसकी तुलना आतंकवाद से भी बड़ा और भयावह सिद्ध कर चुका है। इसके कारण की गहराई से पड़ताल करते हुए रमेशचंद्र मीणा आगे लिखते हैं, “अगर वह बंदूक उठा रहा है तब नीति नियंताओं को ठहरकर गहराई से सोचने की जरूरत है न कि ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’ की तर्ज पर कदम उठाना।... अगर जिस समुदाय की परंपरा ही अहिंसक रही है और ऐसे समुदाय में बंदूक संस्कृति पहुंची है तो यह चिंता का विषय है कि उस हिंसा को खत्म करने के लिए सरकार स्वयं हिंसात्मक कदम उठा रही है जबकि भारत एक उदाहरण रहा है जिसने अपनी आजादी की लड़ाई अहिंसा के बल पर गुलाम देश को गुलामी से मुक्ति दिलाई हो तब क्या कारण है कि आजाद भारत में आम आदिवासी अपनी अस्मिता के लिए जूझ रहा है और हिंसा का शिकार हो रहा है।”4
            नक्सलवाद और आदिवासियों की उनमें आस्था के संदर्भ में एक प्रसंग है। जब छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में अपहृत कलक्टर एलेक्स पॉल मेनन की रिहाई के लिए नक्सलियों ने मध्यस्थ के रूप में बीडी शर्मा को नियुक्त किया। तब नाना प्रकार के सवाल लोगों के मन में उठने लगे। प्रश्न का मूल मुद्दा बना कि आखिर नक्सलियों ने श्री शर्मा को मध्यस्थ के रूप में क्यों चुना? उनपर इतना भरोसा क्योंकर किया गया?
            “ब्रह्मदेव शर्मा के प्रति आदिवासियों के इस गहरे लगाव का कारण दरअसल बैलाडीला का वो चर्चित कांड है, जिसमें श्री शर्मा ने 300 से ज्यादा गैर जनजातीय लोगों की जबरन शादी आदिवासी लड़कियों से एक साथ करा दी थी। ये वो लोग थे, जो बैलाडीला के लौह अयस्क की खदानों में काम करने आए थे। इन्होंने वहां की भोली-भाली आदिवासी युवतियों को शादी का झांसा देकर उनका दैहिक शोषण किया और छोड़ दिया। ये 1968-69 की बात है। उनमें से बहुत सी युवतियां गर्भवती हो गईं तो कुछ के बच्चे भी पैदा हो गए थे। श्री शर्मा तब बस्तर के कलक्टर थे। उन्होंने ये देखा तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ। आखिर श्री शर्मा के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा और 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई।”
            ‘गांव गणराज्य’ के नाम से पाक्षिक पत्रिका निकालने वाले श्री बी.डी. शर्मा आदिवासियों की समस्याओं पर करीब सौ पुस्तकें लिखीं हैं। ‘ट्राइबल डेवलपमेंट’ और ‘आदिवासी स्वशासन’ में उनकी मेहनत, जरूरत व समस्याओं को समझकर स्वयं आदिवासियों की शासन पद्धति को ही उनके समग्र विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। पर्यावरण प्रेमी और उसकी रक्षा के लिए सदैव तत्पर आदिवासियों को वहां से हटाकर और कोयला, लोहा पत्थर व बॉक्साइड जैसे संसाधनों का दोहन करने में उनका इस्तेमाल कर सरकार देश का कैसा विकास करना चाहती है? पर्यावरण प्रदूषण की विभीषिका के कारण होने वाली तमाम व्याधियों से सभी परिचित हैं। पर्यावरण सुरक्षा व वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों में सरकार सालाना अरबों फूँक देती है। दूसरों को जागरूक बनाने वाले सरकारी तंत्र के कार्यकर्ता खुद कितने जागरूक होते हैं, यह जग-जाहिर है। धूमिल अपनी कविता ‘पटकथा’ में इसी तथ्य का जिक्र करते हैं:
            “मैनें दरवाजे के बाहर
            एक पौधा लगाया और कहा-
            वन-महोत्सव...
              *    *    *
            मगर मुझे शांति चाहिए
            इसलिए खाली दरबे में
            एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
            ‘गूँ... गुटरगूँ... गूँ... गुटरगूँ...’
            और चहकते हुए कहा-
            यही मेरी आस्था है
            यही मेरा कानून है”6
            स्वशासन पद्धति, पर्यावरण सुरक्षा व सहयोगी जीवन शैली को अंगीकृत करते हुए जहाँ हमें उनसे प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए, वहीं सामाजिक विकास के नाम पर प्रकृति से ही उन्हें बेदखल कर दिया गया। सामाजिक विकास संबंधी सारे उपक्रमों में आदिवासी ही बलि देते आ रहे हैं। मानो वे समाज में अवांछित पहलू हों। प्रकृति भी देश की सबसे बड़ी पूँजी हो सकती है। और प्रकृति के माध्यम से भी देश विकसित हो सकता है। देश की जनता से आदिवासियों को अलग रखकर विकास नहीं हो सकता, बल्कि सभ्य समाज इन्हीं की तर्ज पर चलकर भी विकास कर सकता है। ताकि आगे भविष्य के लिए पर्यावरण प्रदूषण का खतरा न हो।
            आजादी मिलने से पूर्व कई आदिवासी समुदाय सरकारी रिकार्ड में अपराधी जातियों के रूप में दर्ज थीं। “उस समय ‘हैवीस कार्पस एक्ट’ लागू था। यह एक्ट इस सिद्धांत को मानता था कि इन अपराधी जनजातियों में जन्मजात चोरी करने की प्रवृत्ति होती है, जैसे पशु-चुराना, घर में सेंध मारना, लूटना तथा ऐसी ही अपराधी वारदातें करना आदि। इन्हें इनकी पुश्तैनी प्रवृत्तियां समझा जाता था और इसे आधार बनाकर उन्हें सेना में भी भर्ती नहीं किया जाता था।”7 जन्म के आधार पर किसी जाति या समुदाय को कानूनन अपराधी (जयरामपेशा) सिद्ध कर दिये जाने से आजादी के उपरांत इसी पूर्वाग्रह के कारण भारत में  आदिवासी यथास्थिति आदिम बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हैं, जबकि अन्य जातियों के सामाजिक, आर्थिक और जीवन स्तर में कितना कुछ परिवर्तन हो चुका है। परिणामस्वरूप ये आज भी गरीब, भूमिहीन, अशिक्षित और विस्थापित इन चार विशेषण से युक्त निराशाजनक स्थिति से जूझ रहे हैं। ‘बेहालदशा और दिशाविहीन-आदिवासी’ निबंध के अंतर्गत रमेशचन्द मीणा इनकी बदहाल जिंदगी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं, “आदिवासी की दशा को जानने के लिए अगर चित्रांकन किया जाए और चित्रांकन के बाद जो चित्र बनेगा तो ऐसा ही लगेगा- फटेहाल भुखमरी का शिकार कुपोषित काया में अगर कोई आत्मा है तो आश्‍चर्य है कि आदिवासियों के अंदर यह कौन-सी अनूठी आत्मा है! कोई चित्रकार किसी आदिवासी का चित्र बनायेगा तो ऐसा ही चित्र उभरेगा। इस चित्र को चाहे मकबूल फिदा हुसैन बनाये या दिनेश कुमार वर्मा चित्र एक जैसा ही बनेगा क्योंकि चित्र में कलागत भेद भले ही हो वास्तविकता में कोई अंतर नहीं आयेगा!”8
            विकसित या पूँजीपति समाज को जब भी श्रमबल की आवश्यकता महसूस हुई, इन्हीं का शारीरिक शोषण किया गया। जिनके श्रमबल पर पूँजीपति असीमित संपदा के मालिक बन गए, हवस पूर्ति के लिए उन्हीं की स्त्रियों को ही शिकार बनाते रहे। संथाली भाषा की आदिवासी लेखिका निर्मला पुतुल कविता ‘ये वे लोग हैं जो...’ में बताती हैं:
            “ये वे लोग हैं
            जो हमारे बिस्तर पर करते हैं
            हमारी बस्ती का बलात्कार
            और हमारी ही जमीन पर खड़े हो
            पूछते हैं हमसे हमारी औकात !

            ये वे लोग हैं
            जो मेरी कविताओं में भी तलाशते हैं
            मेरी देह !”9
            शारीरिक, मानसिक और दैहिक सभी प्रकार से शोषित आदिवासी अंत में अपराधी ही कहलाते हैं। इनकी वकालत करने वाला कोई नहीं होता, फलस्वरूप शोषण भी निर्बाध गति से चलता रहा है। जो इस शोषण तंत्र के खिलाफ आवाज उठाने का हिमायती रहा हो, आदिवासी पक्षधरता की वकालत करता रहा हो; उसे या तो मौत के घाट उतार दिया जाता रहा या फिर देशद्रोही करार देते हुए बाकायदा जेल में बंद कर दिया जाता रहा है। दल्ली-राजहरा (छत्तीसगढ़) के लौह-अयस्क की खानों में कार्यरत आदिवासी मजदूरों के हितों की वकालत करते समय शंकर गुहा नियोगी के एक ही आवाज पर सारे श्रमिक एकत्र हो जाते। लेकिन अंतिम परिणाम यह हुआ कि, “27 सितंबर 1991 की रात को पूंजीपतियों के लोगों ने सोते समय... खिड़की से उनके सीने पर गोली दाग दी। एक असाधारण व्यक्तित्व, राजनैतिक कर्मी, दूरदृष्टि रखनेवाला, नि:स्वार्थी समाज का सपना देखने वाला व स्नेह प्यार से सराबोर एक जीवन का अंत हो गया।”10 इसी क्रम में डॉ. विनायक सेन और उनकी पत्नी डॉ. इलीना सेन ‘रूपांतर संस्था’ स्थापित कर धमतरी के आसपास के क्षेत्र में निर्धन व विस्थापित आदिवासियों के बीच स्वास्थ्य, कृषि, शिक्षा और महिला जागृति आदि महत्वपूर्ण मुद्‍दों पर कार्य आरंभ किया।... वे तब ईंट भट्‍ठों के मजदूरों के बच्‍चों के लिए एक प्रोजेक्ट आरंभ करने जा रहे थे ताकि छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूरों की शिक्षा में निरंतरता बनी रहे।”11 डॉ. सेन पर देशद्रोह जैसे आरोप लग गए। कई वर्षों तक जेल में रहना पड़ा।


संदर्भ ग्रंथ:
1. तहलका, संजय दुबे, 31 जनवरी 2014, अंक 2, दिल्ली, पृष्ठ 5
2. वही, पृष्ठ 5
3. आदिवासी दस्तक: विचार परंपरा और साहित्य, रमेशचन्द मीणा, प्रथम संस्करण 2013, अलख प्रकाशन जयपुर,       पृ. 34-35
4. वही, पृ. 35
5. आखिर कौन हैं ये बीडी शर्मा ?, द संडे इंडियन, ओंकारेश्वर पाण्डेय, मई 11, 2012
6. संसद से सड़क तक, धूमिल, पैपरबैक संस्करण 2006, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 120
7. आदिवासी: शौर्य एवं विद्रोह, सं. : रमणिका गुप्ता, प्रथम संस्करण 2004, साहित्य उपक्रम नई दिल्ली, पृ. 96
8. नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, तीसरा संस्करण 2012, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, पृ. 54
9. संघर्ष और निर्माण, सं. : अनिल सद्‍गोपाल, श्याम बहादुर ‘नम्र’, प्रथम संस्करण 1993, राजकमल प्रकाशन नई           दिल्ली, पृ. 613

10. डॉ. विनायक सेन- ललित सुरजन, देशबन्धु,  11 मई 2009