Saturday, April 25, 2015
छत्तीसगढ़ी माटी में विकसित राजस्थानी लोककथा (संदर्भ : ‘चरन दास चोर’)
‘लोक’
शब्द के अभिप्राय से जुड़ी कई भ्रांतियों का निवारण करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने इसका सटीक आशय स्पष्ट किया - “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं
है, बल्कि नगरों या ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिसके व्यवहारिक ज्ञान का
आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में रहने वाले परिष्कृत रुचि संपन्न तथा
सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अति सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त
होते हैं। परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित
रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।”1
‘लोक’ शब्द के संकुचित अर्थ के दायरे को विस्तृत करते हुए साहित्य में वे ‘लोक’ पर
विशेष ध्यान केंद्रित करते हैं, इसी कारण तुलसीदास की तुलना में वे कबीर को लोक के
अधिक नजदीक पाते हैं, और शिष्ट साहित्य की तुलना में लोक साहित्य में वे मानवीय
संवेदनाओं की सांद्र अभिव्यक्ति को महसूस करते हैं।
लोक साहित्य जो कि युगों-युगों से
मौखिक परंपरा से चली आ रही होती है, न इसके रचयिता का अक्सर पता चल पाता है और न
ही रचनाकाल का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव हो सकता है। फिर भी इसकी खासियत यह है
कि वर्तमान समय का व्यक्ति उसे अपने समय की उपज मानता है। चूँकि यह श्रुति परंपरा
की देन है, इसलिए व्यक्ति उसमें अपने समय के अनुरूप संशोधित परिवर्धित करता रहता
है। आज वैज्ञानिक युग में जबकि इसके संरक्षण हेतु अनेक प्रविधियां प्रयोग में लाई
जा रही हैं, फिर भी उसमें परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन ही लोक साहित्य की ऐसी
शक्ति है, जिसके कारण वह कई-युगों तक संरक्षित रह पाने में समर्थ हो पाता है और सहज
ही लोगों की जुबान पर बना रहता है।
साहित्य में ‘लोक’ तत्व
को लेकर रंगकर्म में अभिनव प्रयोग करने वाले रंगकर्मी हैं- ‘हबीब तनवीर’। इन्होंने
रंगकर्म के माध्यम से ‘लोक’ की ऊर्जस्विता को पहचानकर उसे सफलता की बुलंदियों पर
पहुँचा दिया। छत्तीसगढ़ में प्रचलित नाचा में कलाकारों द्वारा तुरंत संवाद बना-बनाकर
लोगों को हँसाते हुए कथानक को आगे बढ़ाते जाने की एक विशिष्ट परंपरा रही है। नाचा
के दौरान कलाकार आंचलिक दृश्यों को प्रस्तुत करते हुए सेठ, महाजनों का स्वांग रचते
हैं। दर्शकों को हँसाते-हँसाते गंभीर प्रकरण पर सोचने हेतु विवश कर देने की अद्भुत
क्षमता इन कलाकारों के पास रहती है। नाचा के दौरान दर्शक अपनी जगह से टस-से-मस तक
नहीं होते। नाचा के कलाकारों के इस गुणधर्म से हबीब तनवीर परिचित थे। इसी कारण
बहुतेरे नाटकों में नाचा के कलाकारों के साथ वे काम किये। लोक प्रचलित कहानियों को
सुनाकर उसमें नाटक के सारे तत्व अभिनय की प्रयोगशाला से प्राप्त करते थे। नाटक
‘चरन दास चोर’ की भूमिका में उन्होंने इसका जिक्र किया है, “1973 में रायपुर नाचा वर्कशॉप में पहली बार सीखा था जिसके नतीजे में ‘गाँव के
नाँव ससुरार मोर नाँव दामाद’ जैसा नाटक निकलकर आया था। सबक़ ये था कि कभी किसी वर्कशॉप
के लिए सारी बातें पहले से सोचकर मत जाओ। इलाक़े में पहुँचकर वहाँ के हालात देखो,
कलाकारों को मंथन में डालो, और इन्हीं परिस्थितियों से जो प्रेरणा मिले और जो
कहानी उत्पन्न होती नज़र आए, बस उसके सहारे आगे बढ़ते चलो यही एक रास्ता है !”2 यही कारण है कि इनके नाटकों के में लोक-पक्ष घनीभूत हो उठा है :
“गुरुजी
: तोर में का एब हे बेटा ?
रामचरण
: मोर में कोई एब नइ हे गुरुजी (बीड़ी निकालता
है, पीता है और बीड़ी का सारा धुआँ गुरुजी के मुँह
पर आता है)
पर आता है)
गुरुजी
: अरे बिना एब के आदमी तो आज तक संत अखाड़ा में नइ
आये हे तैं कहां से आगेस रे (खांसी आती है
धुएं
के कारण) बेटा रामचरण ये कहां के धुआँ ? ये बाबू सब नाक कान में घुसगे रे ?
के कारण) बेटा रामचरण ये कहां के धुआँ ? ये बाबू सब नाक कान में घुसगे रे ?
रामचरण
: पावर हाऊस के होही जी”3
छत्तीसगढ़ में भिलाई और उनके आसपास
नाचा का ऐतिहासिक महत्त्व रहा है। स्टील प्लांट भिलाई में स्थित पावर हाऊस से पूरे
प्लांट में बिजली सप्लाई किया जाता रहा है। पावर हाऊस से निकलने वाला धुआँ लोगों
के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर कितना घातक प्रभाव डाल रहा था और इसकी तुलना में बीड़ी
से निकलने वाले धुएँ का दुष्प्रभाव कितना बौना साबित होता है; व्यंग्य के माध्यम
से चित्रित हो जाता है। और ये सारे संवाद गवंई जन-जीवन में सहज उद्भूत वाक्पटुता
के साथ प्रकट होती है।
हबीब तनवीर थिएटर में पाश्चात्य शैली
से कभी प्रभावित नहीं हुए। न ही कभी सफलता के ऊँचे मकाम हासिल करने के लिए उसका
नकल किया। रंगकर्म में आंचलिक जीवन की छाप को वे विशेष तवज्जो देते रहे। वे कहते
हैं, “थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस
तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग यह देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर है, थिएटर
के सारे लवाज़मात तत्त्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मज़ा आता है जो थिएटर में
आना चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा थिएटर ख़ुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे। यानी थिएटर
में इलाक़ाइयत (आंचलिकता) का दामन न छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुँचना कामयाब थिएटर
की कुंजी है।”4 ठेठ
आंचलिकता के कारण महत्वहीन समझकर पहले जिसे लंदन के कामनवेल्थ थिएटर में प्रदर्शन
पर हमारी सरकार विरोध कर रही थी। उसी का जब लंदन के सारे प्रमुख अख़बार में ‘चरन द्
थीफ़’ नाम से रिव्यु प्रकाशित होने लगा,
सरकार भी तारीफ़ें करने लगी।
बहरहाल लोक प्रचलित
नाचा पर अभिनव प्रयोग करते हुए उसे वैश्विक पटल पर स्थान दिलाना कोई सहज काम नहीं
है। आत्मविश्वास के साथ-साथ दृढ़ लगन व परिश्रम की जरुरत होती है। आंचलिक बोली में
प्रस्तुत संवाद से उनमें कभी हीनता बोध नहीं हुआ, इसके विपरीत छत्तीसगढ़ी उनकी
भाषाई अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गई। भाषाई हीनता से पीड़ित व्यक्ति अपने
आंचलिक परिवेश से कटने लगता है। लोकमंगल के विधान की सशक्त अभिव्यक्ति में कमी का
कारण भी यही भाषाई हीनताबोध ही है। हबीब तनवीर इन धारणाओं से कोसों दूर थे। उनके
लिए लोक ही सर्वोपरि रहा-
“दुनिया में बादशाह है सो वह भी आदमी
और मुफलिसो-गदा है सो है वह भी आदमी
काला भी आदमी है और उल्टा है ज्यूं
तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा-सा चांद का
बदशक्लो-बदनुमा है, सो है वह भी आदमी”5
आदमी-आदमी
में किए जाने वाले विभेदों को भुलाकर लोक को सर्वोपरि मानने वाला नज़ीर का यह संदेश
हबीब तनवीर के साथ ही रेणु के व्यक्तित्व की भी याद दिलाता है। ‘कवि की यात्राएँ’
में रघुवीर सहाय लिखते हैं, “रेणु ने
दूसरों में ऐसे किसी दम्भ को कभी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं पाया कि या तो जवाब में
कोई आंचलिक मुद्रा अपनाते या तथाकथित महानगरी साहित्य की नक़ल करने लगते। उनके लिए
लोग ही सत्य थे-वहाँ तक सत्य जहाँ तक वह उन्हें जानते थे और उनसे एक हो सकते
थे-चाहे वे कहीं के रहनेवाले हों। यह आस्था उनमें आजीवन बनी रही।”6
सामंतवादी व्यवस्था किस प्रकार शोषण
करती आ रही थी इसका स्पष्ट चित्रण नाटक ‘चरन दास चोर’ में हुआ है। मालगुजार सेतुवावाले
का सेतुवा और पैसे छीन लेता है, नौबत भूखों मरने की आ गई है। चरन दास की बातों से
बल पाकर मालगुजार के पास सेतुवावाला चला जाता है। दृश्य है-
“चोर
: अइसे लगाहूं खिंच के तोर सारी जम्हड़ा झड़ जाही जा
एक धांव अउ मांग के देख
सेतुवावाला
: तैं इही मेर खड़े रबे ना ?
चोर
: हव
(सेतुवावाला घबराते-घबराते जाता है
और मालगुजार की गद्दी पर बैठ जाता है)
मालगुजार
: आ...
मोर मुंडी उपर बइठ जा
सेतुवावाला
: गलती होगे मालिक
मालगुजार
: गलती नइ होये रे तुमन आदमी ला चिन्हव नइ !”7
एक तो चोरी ऊपर सीनाजोरी यह कि
सेतुवावाला गद्दी में जैसे ही बैठा दुत्कार दिया गया। ऐसी सामंतवादी व्यवस्था
जिसमें आम आदमी की गलती यह है कि उसका सब कुछ छीन जाने के पश्चात् भी छीनने वाले
से सलीके से व्यवहार न करने पर स्वयं लज्जित महसूस कर रहा है।
दृश्य : तीन के अंत में
मंदिर के सारे सामानों के साथ मूर्ति चोरी हो जाने पर आसपास में यह प्रकरण जंगल की
आग की तरह फैल जाती है। छत्तीसगढ़ में सुआ गीत के माध्यम से अपने समय की विडंबनाओं
का बखान करने की परंपरा है। इसलिए मूर्ति चोरी हो जाने की कथा भी सुआ गीत में
शामिल हो गई है-
“तरीच नारी नाहा ना मोर नाहा नारी ना
ना रे
सुआ हो तरी ओ नारी नाहा नारी ना
नारे सुआ हो तरी ओ नारी नाहा नारी ना
का कहइबो या सोचेला होगे
कइसे ढंग बताबो दीदी परोसिन, छोड़त
नइये वोहर एको खोर
परोसिन देख तो बहिनी आवत हाबे चोर
परोसिन देख तो बहिनी आवत हाबे चोर sss
तरीच नारी...”8
गुरु के साथ मजा-मसखरा करते हुए किए
गए चार वचनों को अंत तक निभाते रहने और कभी झूठ न बोलने के कारण राजतंत्र की
व्यवस्था चोर की जान ले लेती है। उसे झूठ बोलने के लिए बाध्य किया जाता है।
तरह-तरह के लोभ और लालच के जाल में फंसाने की कोशिश की जाती है। झूठ की शरण में
जाकर सत्ता सुख भोगने के बरअक्स वह सचाई की राह पर चलकर मौत का वरण कर लेता है।
तो ऐसे नाटक के मंचन पर 2009
में छत्तीसगढ़ सरकार ने रोक लगा दिया। दलील यह दिया गया कि सतनामी
गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र ऐसा किया गया है। इस पर पर्दाफाश करते हुए
जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण बताते हैं, “मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था
जिसका नाम था 'फ़ितरती
चोर'। हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के
क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये। 'चरणदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक
है। एक अदना सा चोर गुरु को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा,
कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरु
द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का
पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है। चरणदास
को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं। वह बड़े लोगों को चोरी
का शिकार बनाता है। नाटक में चरणदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल में मज़े का
भंडाफ़ोड़ किया गया है। एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है। ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है।... कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़
राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरों के पक्ष
में व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं
को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते
एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सत्ता और लोक के बीच जारी संग्राम
की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा ? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध
के साथ उठने स्वाभाविक हैं।”9 गुरु को दिए गए चार
वचनों के पालन करते समय चोर (चरन दास) अनजाने ही सत्ता के वाम-पक्ष में अपने को
खड़ा पाता है। जिसके कारण लोक की चिंताओं के बरअक्स सत्ता का लुभावना रूप उसे नहीं
सुहाता। सत्ता का सर्वाधिकार अपने पक्ष में सुरक्षित रखने का सबसे सशक्त माध्यम
क्या ये चारों वचन नहीं हैं ? अपने को श्रेष्ठ साबित करने का एक विधान हमारे भारत
में हाथी पर बैठकर जुलूस निकालना रहा है। ताकि इसी बहाने मसीहाई बाना का खुमार
लोगों के सामने बना रहे। हबीब तनवीर के इस नाटक से पूर्व बालमुकुन्द गुप्त अपने
निबंधों में ब्रिटिश शासन पर तीखा व्यंग करते हैं । लार्ड कर्जन द्वारा हाथी पर
बैठकर जुलूस निकालने की घटना का जिक्र करते हुए निबंध ‘श्रीमान् का स्वागत’ में
कहते हैं, “विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिंदुस्थान क्या है ! हिंदुस्थान को
श्रीमान् स्वयं ही समझे हैं । विलायत वाले समझते तो क्या समझते ? विलायत में उतना
बड़ा हाथी कहाँ जिस पर वह चंवर छत्र लगाकर चढ़े थे ? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस
उच्च श्रेणी के शासक हैं ? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारत को
विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायत वालों को समझा सकते कि भारत क्या है और
श्रीमान् का शासन क्या ?”10 एक अन्य निबंध
‘वैसराय का कर्तव्य’ में वे इसकी पुरातन परंपरागत रूढ़ मान्यता की उस सीढ़ी तक पहुँच
जाते हैं, जब देश की “प्रजा एक दिन पहले रामचंद्र के राजतिलक पाने के आनंद में
मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचंद्र बन को चले तो रोती रोती उनके पीछे जाती थी ।
भरत को उस प्रजा का मन रखने के लिए कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियों का
जुलूस नहीं निकालना पड़ा, बरंच दौड़कर बन में जाना पड़ा ।”11 देश की राजतंत्रात्मक व्यवस्था के मूल में अपने को असाधारण रूप से ऊँचा
दिखाने की यह प्रथा निहित थी और स्वाधीनता के बाद भी लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में
सत्तासीन इन्हीं बातों का अनुकरण करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा इसे
प्रतिबंधित करने का एक और कारण सत्ता और जनता के बीच बनाए जा रहे इसी आडंबरयुक्त
दुराव को मान सकते हैं ।
खैर
इन तथ्यों के बरअक्स जब हम नाटक ‘चरन दास चोर’
को पढ़ते हैं, तब हमें नाटक के शुरुआत का गीत याद आता है, “सत के तराजू
में दुनिया ला तौलो हो...2/ गुरुजी बताइने सच सच बोलो हो...2/ सच के बोलइया मन हावे दुई चार/ वही गुरु हे हमार...”12 यह वही सच है जिस पर चलते-चलते एक मामूली-सा चोर गैर-मामूली बन जाता है,
जिससे पूरी सत्ता-व्यवस्था की चूलें हिल जाती है। इस दौरान वह चोर रानी का चित्त
चोर बन जाता है और लोकजन से आत्यंतिक लगाव के कारण अंत तक आते-आते वह सबका चित्त
चोर बन जाता है । तब अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपने प्रेमी की नृशंस हत्या ही
रानी को तार्किक लगती है। इसीलिए हबीब साहब कहते हैं, “मेरे नज़दीक नाटक का विषय
यही था कि सच्चाई का दामन पकड़े रहना जान जोखिम में डालना है। अगर यही हश्र सुक़रात
का हुआ, ईसा मसीह का हुआ, और फिर एक मामूली चोर का भी यही अंजाम हुआ तो उसका दर्जा
किसी महापुरुष से कम नहीं है।”13
संदर्भ
1.
जनपद, अंक 1952, पृ. 65
2.
चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय
आवृत्ति संस्करण 2008/ पृ. 9
3.
वही/ पृ. 36
4. वही/ पृ. 24
5. आगरा बाज़ार/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ 2005/ पृ.108
6. ऋणजल धनजल/ फणीश्वर नाथ रेणु/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/ पाँचवाँ
संस्करण 2005/ पृ. 12
7. चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय आवृत्ति
संस्करण 2008/ पृ. 46
8. वही/ पृ. 54
9. हद है! अब 'चरण दास चोर' पर
प्रतिबंध/ प्रणय कृष्ण/ कबाड़खाना (वेब पत्रिका)/ 9 अगस्त 2009
10. निबंधों की दुनिया : बालमुकुन्द गुप्त/ संपादन : रेखा सेठी/ वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली/ प्रथम संस्करण
2009/ पृ. 26
11. वही/ पृ. 30
12.
चरन दास चोर/ हबीब तनवीर/ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली/ द्वितीय
आवृत्ति संस्करण 2008/ पृ. 29
13. वही/ पृ. 27शोध-प्रकल्प (ISSN 2278-3911) त्रैमासिक रिसर्च जर्नल के सेमीनार विशेषांक अंक में प्रकाशित ।
Monday, October 13, 2014
इससे पहले कि आदिवासियों पर अंधेरों की हुकूमत हो जाये...
आदिवासी ‘फोकलोर’ का ही यदि गहन अध्ययन किया जाए तो सदियों से उन पर होते रहे अत्याचार, शोषण व अमानवीय घटनाओं का ऐतिहासिक अंबार-सा लग जायेगा। इसलिए कथाकार उदय प्रकाश अपनी कहानी ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के माध्यम से ‘फोकलोर’ में मौजूद आदिवासी नायकों के संघर्ष की कथा को जानने समझने की वकालत करते हैं। वे बताते हैं, “आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं. वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते हैं. सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते हैं और सिर्फ कच्ची, भुनी या उबली चीजें खाते हैं. तेल में फ्राइ करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य हैं. अपनी स्वायत्तता और संप्रभुता के लिए उन्होंने भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान संघर्ष किया था. लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया. इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है... जो वर्ग, जाति या नस्ल सत्ता में होती है, वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का लिख जाना अभी बाकी है.”1
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष से हम सब भली-भाँति परिचित हैं। फिर भी आजादी के बाद वे जस के तस जीवन जीने को मज़बूर हैं, और वर्चस्वकारी प्रभु-वर्ग खाद-पानी से लहलहाते पौधे की तरह बढ़ गये। सुविधा-संपन्नता के इस तकनीकी युग में आदिम यथास्थिति की जिंदगी भी उन्हें नसीब नहीं होता। प्रकृति तो इनसे छीन ही ली गई है। घर से भी विस्थापित कर दिये गये हैं। इन सब के विरूद्ध वे आवाज उठाते हैं, लेकिन बड़ी चालाकी के साथ उसे दबा दिया जाता रहा है। इसलिए अब तक का सारा इतिहास एकांगी है।
कूटनीति और राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण केवल सत्ता पक्ष का ही इतिहास निर्मित होता आया है। जब तक समाज-दर्शन सर्वांगपूर्णता पर आधारित नहीं होगा, समाज में एक वर्ग हमेशा प्रभु वर्ग बनकर दूसरे वर्ग का शोषण करता रहेगा व एकांगी इतिहास रचता रहेगा और पराजित जाति का रुदन इतिहास के पन्नों से बाहर अरण्य में विलीन होती रहेगी। वह चाहे प्राचीन अमेरिका के इंका, माया, एज्टैक और सैकड़ों रेड इंडियन्स हों या भारत के कोल, किरात या असुर जनजाति। उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में रणेन्द्र बताते हैं, “शायद मुख्यधारा पूरा निगल जाने में ही विश्वास करती है।...छाती ठोंक-ठोंककर अपने को अत्यंत सहिष्णु और उदार कहनेवाली हिन्दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी भी जगह नहीं छोड़ी थी। वे उनके लिए बस मिथकों में शेष थे। कोई साहित्य नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई अजायबघर नहीं। विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत मात्र नहीं।”2
बाज़ार में नमक के एवज में गोंद, बीज, तेंदुपत्ता, करील व बांस की टोकरियाँ जैसी बहुमूल्य वस्तुओं को लेकर व्यापारी धनकुबेर बन बैठे हैं। इससे भी जब मन नहीं भर पाता। महादेव टोप्पो कहते हैं, तब :
“लेकर सादे कागज़ में अंगूठे का निशान
रचते रहे हमारे विरूद्ध षड़यंत्र
लेकिन इन सब से अनजान
अपनी झोपड़ियों में
करते रहे हम तुम्हारा स्वागत
करते रहें तुम्हें जोहार”3
(फिर भी हम कहते रहे हैं तुम्हें जोहार)
बावजूद इसके वह चुप्पी साधकर बैठ नहीं गया है, लगातार संघर्षरत है। उड़ीसा में बॉक्साइट खनन का इरादा लिए जब वेदांता कंपनी ने नियमगिरि में ‘प्लांट’ स्थापित करना चाहा। नियमगिरि के आसपास रायगड़ा और कालाहांडी जिलों के 12 गावों में बसे कोंध आदिवासियों ने इसका उग्र विरोध किया। ग्रेस कुजूर ऐसे शोषण तंत्रों के ख़िलाफ़ ‘एक और जनी शिकार’ में आक्रामक होकर अपने संगी-साथियों को समझाते हुए कहती हैं :
“ए संगी !
क्यों घूमते हो
झुलाते हुए खाली गुलेल
+ + +
क्या तुम्हें अपनी धरती की
सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही ?”4
नियमगिरि उनका ‘पवित्र पर्वत’ है। जो सिर ढकने के लिए उन्हें छत मुहैया कराती है, उनकी प्यास बुझाती है और दो-जून की रोटी भी इसी से मिलती है। इसलिए सर्व सम्मति से खनन परियोजना का विरोध करते हुए कोंध आदिवासी कहते हैं, “हम नियमगिरि पहाड़ियाँ किसी के हवाले नहीं होने देंगे, चाहे वह कोई कंपनी हो या सरकार या कोई आदमी।”5
वनाधिकार को लेकर औद्योगिक घरानों व आदिवासियों के बीच सरकार ग्राम-सभा आयोजित करती रही है। आदिवासी इसमें भी छले ही जाते हैं। “मध्यप्रदेश के सिंगरौली में महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम) को जंगल आबंटित करने के संबंध में वनाधिकार कानून 2006 के तहत मार्च 2013 में ‘ग्राम-सभा’ का आयोजन किया गया था। जिसमें सिर्फ़ 184 लोग उपस्थित थे। जिसे षड़यंत्र-पूर्वक फ़र्ज़ी तरीके से महान कोल लिमिटेड ने अपने पक्ष में बदल दिया। आर. टी. आई. के तहत मिली जानकारी में उक्त ‘ग्राम-सभा’ में पारित प्रस्ताव में 1125 लोगों के हस्ताक्षर हैं। इन हस्ताक्षरित नामों में से 9 ऐसे लोग हैं जिनकी मृत्यु सालों पहले हो चुकी है।”6 सच्चाई जगजाहिर है। इसिलिए महादेव टोप्पो आगे फिर कहते हैं :
“आखिर किन-किन रूपों में हम तुम्हें पहचानें
क्योंकि हमने तुम्हारे जिस भी रूप को माना सच
उसी रूप ने किया है हमारे साथ विश्वासघात
फिर भी हम कहते रहे हैं तुम्हें जोहार ! जोहार! जोहार !” 7
तो ऐसी दयनीय शनिश्चरी दशा के प्रकोप से बचाने के लिए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में आज महती भूमिका अदा कर रही हैं। ‘डोंगरिया कांध और नियमगिरि से जुड़े प्रश्न’ में रवीन्द्र त्रिपाठी कहते हैं, आदिवासियों के “प्रतिरोध आंदोलन को तेज़ करने में और विश्व जनमत का ध्यान इस तरफ़ आकृष्ट करने के लिए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी भूमिका रही है। इन फ़िल्मों ने वो काम किया है जो अक्सर अख़बारों और टीवी चैनलों का है। पिछले कुछ वर्षों में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की विधा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरी है जो समाज के वंचित और सीमान्त लोगों के संकटों से विश्व जनमत को परिचित करा रही है।”8 इन डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की अपनी एक सीमा है। शिक्षा संस्थानों, फ़िल्म उत्सव जैसे जगहों पर साल भर में एकाध बार प्रदर्शनी लगाकर उनकी आर्थिक तंगहाली दिखलाकर अधिकांश जगहों पर तो फ़िल्म संचालक पुरस्कार और सहानुभूति अपने लिए बटोरकर ले जाता है। चाहे बैंक हो, तहसील ऑफ़िस, सरकारी, अर्ध-सरकारी या प्राइवेट महकमा कहीं भी नागरिक की हैसियत से गिनती नहीं होती। उनके पास पैसे नहीं है इसलिए आवाज़ नहीं है। सब जगह से दुत्कार ही मिला है। विरोध करें, आवाज़ उठायें तो ऑफ़िस का एक अदना-सा कर्मचारी तक ‘यू थर्ड पर्सन सिंग्यूलर नंबर’ (फालतू आदमी) की डांट-डपट से भगा देता है।
विकास के नाम पर आदिवासी बहुल इलाकों में तमाम तरह की फैक्ट्रियां लगाई जा रही हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले को ही देख लिजिये। आज से दस वर्ष पूर्व पहाड़ी इलाकों, आदिवासियों के हस्तशिल्प मूर्तियों, गुफाओं की भित्ति पर उकेरी गई प्राचीन चित्रों व रामझरना जैसे तमाम प्राकृतिक संसाधनों के लिए वह जानी जाती रही। आज पूरा का पूरा दृश्य ही बदल चुका है। जिंदल इस्पात व स्टील प्लांट के स्थापित होने से लेकर शुरू हुआ यह उपक्रम अब अनेक स्पंज आयरन की फैक्ट्रियों, पॉवर प्लांट, मिल व रिफाइनरी औद्योगिक क्षेत्र में तब्दील हो चुका है। प्रकृति की गोद में बसे इस जिले का दम घुटने लगा है। पेड़-पौधों की पत्तियों पर हमेशा कोयले का एक पर्त चिपका रहता है। अनियंत्रित पत्थर उत्खनन के कारण चारों ओर धूल की पर्त जम गई है। फैक्ट्रियों की चिमनियां इतनी नज़दीक हैं कि उससे निकलने वाले धुएं का गुबार हमेशा वहीं मंडराते रहता है। उद्योगों का सारा कचरा जहां-तहां फेंक दिए जा रहे हैं । जंगल धीरे-धीरे कम पड़ जाने से हाथियों का आतंक गॉव-देहातों पर फैलता जा रहा है। किसान हितों की आड़ में नहर परियोजना का उद्घाटन इन उद्योगों को पानी सप्लाई करने के उद्देश्य से किया जाता रहा है। कुल मिलाकर पूरा प्राकृतिक वातावरण तबाह हो चुका है। केलो नदी का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि कभी-कभी तो सैकड़ों क्विंटल मछलियां तड़प-तड़प कर मर जाती हैं। वैश्विक पटल के संगठनों की कुटिलता से हतप्रभ आदिवासी नेता व विचारक डॉ. रामदयाल मुण्डा एक साक्षात्कार में कहे थे, “आश्चर्यजनक तथ्य यह कि औद्योगिक कचरे से, धूल-धक्कड़ से जेनेवा की टाईन नदी, लंदन की टेम्स या अमेरिका की मिसीसिपी जहरीली नहीं हो रही हैं, जहरीली हो रही हैं हमारी गंगा, दामोदर और सुवर्णरेखा। विश्वबैंक का पैसा वहां नदियों को साफ कर रहा है और हमारे यहां की नदियों को गंदा।”9
छत्तीसगढ़ में जब कहीं कोई उद्योग या पॉवर-प्लांट लगा रहा होता है; किसान, दलित और आदिवासी बड़ी आशा के साथ उसे स्थापित होते देखते रहते हैं। अपने बच्चों के भविष्य और रोजगार की सारी चिंता दूर हो जाने का भान होता है। उनके बच्चे चाहे साहित्य में अध्ययनरत हो अथवा चिकित्सा, तकनीकी, कला या इंजिनियरिंग क्षेत्र में। उन्हें लगता है हमारे क्षेत्र के पूरे विकास का दायित्व जब उसने ले रखा है, तब बच्चों की नौकरी भी प्लांट में ही लगवा देगा। अशिक्षा और गरीबी ऐसी मानसिकता में बद्धमूल है। इसलिए हमेशा वे शोषित और उपेक्षित होते आए हैं।
‘शिक्षा का अधिकार’ मूल अधिकार का दर्ज़ा ले चुकी है, प्रत्येक राज्य इसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इसके बावजूद खासतौर से आदिवासी आज भी इस अधिकार से वंचित ही हैं। इसी से वे बद से बदतर जिंदगी जीने को विवश हैं। रक्षक ही जब भक्षक बन जायें, तब सुधार की उम्मीद कैसे की जा सकती है? कांकेर जिले के नरहरपुर ब्लॉक के झलियामारी गाँव में स्थित आदिवासी कन्या आश्रम में शिक्षण सत्र 2012-13 के दौरान पहली से पांचवीं तक पढ़ने वाली 46 छात्रायें, जो महज पांच से बारह साल की नाबालिग थीं। इनको पढ़ाने वाले एक शिक्षाकर्मी मनु गोटी और चौकीदार दीनानाथ नागे द्वारा लंबे समय से इनमें से 11 छात्राओं के साथ यौन-शोषण करते आ रहे थे। मारपीट व डरा धमकाकर उन्हें किसी से न बताने के लिये विवश कर दिया गया। गुरुर का सुरुर इतना था कि इस मामले की जानकारी जब आश्रम अधीक्षिका बबीता मरकाम और एक अन्य शिक्षक को हुई तब उन्होंने आदिवासी छात्राओं को ही चुप कराना मुनासिब समझा। गाँव के उपसरपंच तक जब इस मामले की जानकारी पहुंची, आरोपियों पर अर्थदण्ड लगाकर उसने अपने कर्तव्य का इतिश्री कर दिया। शिक्षा विभाग के कर्मचारी तो जानकर भी अनजान बने रहे। औचक निरीक्षण में पहुँचे कलेक्टर ए मंगई डी को इन पीड़ित आदिवासी छात्राओं ने जब रो-रोकर अपने साथ हो रहे इस घोर नाइंसाफ़ी व दुष्कर्मों की जानकारी दीं, तब कहीं प्रशासन सचेत हो सका।
छत्तीसगढ़ में कुछेक जनजातियों के समक्ष एक अलग ही समस्या है, ‘जाति-सत्यापन की समस्या’। छत्तीसगढ़ सरकार ने कई आदिवासियों को केवल हिंदी के शब्दों में हेर-फेर के कारण ही उन्हें आदिवासी मानने से इंकार कर दिया है। यथा सौंरा, सौरा, संवरा, सवरा, सउरा, संहरा। इसी प्रकार पोबिया, पबिया, पाव, पाप जैसे लेखनी की भूल को ही आधार मानकर उन्हें सिरे से नकार देना कैसा न्याय है ! जाति सत्यापित न हो सकने से उन्हें आरक्षण व छात्रवृत्ति का लाभ नहीं मिल पाता। आर्थिक तंगी से वे उचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण उनमें जागृति, चेतना, स्वास्थ्य व आर्थिक स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। बेरोजगार घूम रहे आदिवासी युवक के पूरे परिवार की उम्मीदें उससे जुड़ी हुई हैं। लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में कहें तो उसके रोजगार के लिये :
‘‘.......उसकी माँ
सुई की नोंक पर
अभी झड़ पड़ने वाली
पानी की बूँद की तरह इंतज़ार कर रही थी”11
19 मार्च 2012 को रायपुर में प्रदेश स्तरीय सर्व आदिवासी महासम्मेलन का शांतिपूर्ण आयोजन रखा गया था। ‘एक तीर एक कमान, सब आदिवासी एक समान’ की भावना लिये सारे आदिवासी अपनी छोटी-छोटी मूलभूत समस्याओं को लेकर टिकरापारा रायपुर में स्थित गोंडवाना भवन में अपनी पारंपरिक वेशभूषाओं के साथ तीर-धनुष, भाला, बल्लम, गंडासा लिये एकत्र होकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपने जा रहे थे। मुख्यमंत्री के आदेश पर रायपुर पुलिस महानिरीक्षक मुकेश गुप्ता और पुलिस अधीक्षक दीपांशु काबरा ने उन पर जमकर लाठियां बरसाईं। उनके धार्मिक आस्था का केन्द्र गोंडवाना भवन पर भी उत्पात मचाया गया और वहां सब कुछ तितर-बितर कर दिया गया। उनमें से 74 आदिवासियों को जेल नसीब हुई। आदिवासियों के नेताओं तक को जब नहीं बख़्शा गया तो अन्य की कैसी स्थिति रही होगी ? उनकी बात सुनने वाला, उनकी पक्षधरता करने वाला आज पर्यंत कोई नहीं है। वे सदियों से उपेक्षित व अपमान की अभिशप्त जिंदगी जीने को विवश हैं। आदिवासियों के लिये बेहद जरूरी व सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है, अन्यथा निराश और हताश जिंदगी जीते-जीते उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा।
संदर्भ-ग्रंथ
1. पीली छतरी वाली लड़की/ उदय प्रकाश/ वाणी प्रकाशन/ नयी दिल्ली/ आवृत्ति 2011/ पृ. 14
2. ग्लोबल गाँव के देवता/ रणेन्द्र/ भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली/ पहला संस्करण 2013/ पृ.
33
3. समकालीन आदिवासी कविता/ सं. हरिराम मीणा/ अलख प्रकाशन, जयपुर/ प्रथम संस्करण 2013/ पृ.
78
4. वही/ पृ. 20
5. संघर्ष संवाद, वेब पत्रिका, जुलाई 30, 2013
6. वही/ जुलाई 24, 2014
7. समकालीन आदिवासी कविता/ सं. हरिराम मीणा/ अलख प्रकाशन, जयपुर/ प्रथम संस्करण 2013/ पृ.
80
8. नया ज्ञानोदय/ सं. : लीलाधर मंडलोई/ अंक 137/ जुलाई 2014/ पृ. 98
9. आदिवासियों को मिटाने की साजिश/ जनसत्ता/ सितम्बर 29, 2013/ पृ. 3
10. ग्लोबल गाँव के देवता/ रणेन्द्र/ भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली/ पहला संस्करण 2013/ पृ.
69
11. बची हुई पृथ्वी/ लीलाधर जगूड़ी/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/ 1991/ पृ. 106
Sunday, August 3, 2014
बेचैनी के आगे की राह / धूमिल
शोध:बेचैनी के आगे की राह / धूमिल वाया अखिलेश गुप्ता - Apni Maati Quarterly E-Magazine
धूमिल की कविता जंगल से शहर तक की यात्रा करती हुई प्रतीत होती है जिसमें वह लगातार प्रत्यक्ष ‘अनुभव के नये-नये पृष्ठों’ को पलटते समय जनमानस में व्याप्त वर्गभेद, हिंसा, विसंगतियों,अभावों, स्वार्थ-प्रेरित राजनीतिक दुरभिसंधियों से साक्षात्कार करती है। इसीलिए, "उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे/ कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं/ और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं--/ आदत बन चुकी है।"1 और ‘यह बहुत पहले की बात नहीं’ बल्कि उसी युग की ही बात है जब उसके गाँव में मानव से इतर कोई पशु भी यदि दर्द से तड़पता रहा होता है तब पूरा गाँव उससे व्यथित हो जाता था। लेकिन अब हालात यह है कि उसे राजनीतिक षड़यंत्र के कारण अपनी कविता मालूम पड़ती है कि यह :
और इसके बाद वह चार सौ पचास रुपये माहवार की नौकरी, ६ पैसे प्रति घन फुट कमीशन, सारे टी.ए., डी.ए. पर लात मार कर- सीधे घर चला आया। स्वाभिमान व्यक्तिगत ईमानदारी का आदिम पर्याय है। धूमिल इस मामले में बहुत आगे था। आत्महीनता के विरुद्ध उसका अनवरत संघर्ष इस बात का साक्षी है।"24 (मरणोत्तर धूमिल : एक कथा यात्रा) आत्मगौरव का जो भाव स्वतंत्रता के समय जगा था वह शनै: शनै: टटपुंजिये राजनेताओं के षड़यंत्र से समाप्त होता चला जा रहा था और आलम यहाँ तक पहुँच गया कि जिसमें रही-सही भी आत्मगौरव हो वह इनके द्वारा पीठ ठोंककर गायब कर दिया जाता रहा। इसलिए आजादी से मोहभंग की जो स्थिति मुक्तिबोध की रचनाओं में प्रकट हो रही थी-
साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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"मगर समय गवाह है
बेचैनी के आगे भी राह है" धूमिल
![]() |
| चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
"घेराव में
किसी बौखलाये हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है"2 (कविता : संसद से सड़क तक)
पंजाबी कवि पाश भी सत्तर के दौरान मरियम किसलर द्वारा ‘संस्कृति की खोज’ विषय पर पी-एच.डी. कर रही गोरी नसल की छोरी से हमारी संस्कृति के नष्ट होने का जिम्मेदार उन्हें ही (लंदन) मानते हुए कहता है :
"तुम हमारी संस्कृति की खोज का स्वाँग छोड़ दो
आधी दिल्ली वैसे भी हिप्पियों के लिए स्वीकृत है"3
और आज आलम यह है कि :
"अब तो मेरा भारत मिट्टी की चिड़िया है
अब तो हमारे पुरखों के कंठे से लेकर
गुरुओं-पीरों के शस्त्र तक
लंदन के अजायबघर की शोभा हैं"4 (संस्कृति की खोज : पाश)
दोनों उसी वक्त भारतीय जन-मानस के लिए प्रतिबद्ध होकर संस्कृति के ह्रास के कारण को अलग-अलग ढंग से सिद्ध कर रहे होते हैं। और यह महज हवा-हवाई बातें न होकर अनुभव-सिद्ध बातें हैं। इसीलिए दोनों ही बेबाक वक्तव्य देने में समर्थ हैं। बक़ौल पंजाबी कवि पाश कहते हैं :
"आप लोहे की चमक में चुँधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं,
(लेकिन) मैं लोहे की आँख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूँ
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।"5 (लोहा : पाश)
धूमिल भी इसी बात का समर्थन करते हैं :
"लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।"6 (धूमिल की अंतिम कविता : कल सुनना मुझे)
इस कविता का उत्स राजशेखर धूमिल की जीवन में घटित हुए प्रसंग को मानते हैं : "कलकत्ता में परिचितों का सहयोग न पाकर, वह लोहा ढोने का काम करने लगा। तभी शायद मृत्यु से पूर्व वह अपने अंतिम अक्षरों में"7 इसे बता सका। धूमिल और पाश दोनों की मानसिक बुनावट का जायजा लेते हुए ‘कवियों की पृथ्वी’ में अरविन्द त्रिपाठी ‘पाश की कविता का तापमान’ शीर्षक पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं : "दोनों में वही गुस्सा क्षोभ और एक खास तरह का तनाव जिससे नाराज आदमी प्राय: समाज में फब्तियां कसता है। पर इसके बावजूद धूमिल और पाश में एक मौलिक भेद है। पाश आवेश नियंत्रित कवि हैं। वे अपने आवेश को विद्रोह और क्रांति के रास्ते से होकर सृजन तक पहुँचाते हैं और कविता को नयी दिशा देते हैं। वे एक साथ स्वप्न और क्रांति दोनों के कवि हैं, उनमें क्षोभ है तो प्रेम भी है, गुस्सा है तो हमदर्दी भी। पर धूमिल में सिर्फ गुस्सा है, तोड़-फोड़ है और अंतत: उन्हीं के शब्दों में कहा जाए तो उनकी कविता ‘कठघरे में खड़े एक बौखलाए हुए व्यक्ति का संक्षिप्त एकालाप है।’ जबकि पाश की कविता में क्रांति और प्रेम दोनों हैं।"8
‘पाश की कविता का तापमान’ का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता था। लेकिन पाश की कविता के तापमान को और विस्तृत ढंग से बतलाने के लिए वे धूमिल की कविताओं को धूमिल करने से भी नहीं हिचकते। इसी से आगे कहते हैं: "शायद धूमिल की ही देखा-देखी हिन्दी की नयी पीढ़ी के कुछ रोमांटिक कवियों ने एक नाराज नवयुवक की मुद्रा ओढ़कर ऐसी कविताएं लिखने की जिद ठान ली है कि प्रेम कविताओं को देश निकाला दे दिया जाए और बदले में नकली क्रांति की तलवारें भांजती कविताओं से समाज को बदलने का ठेका ले लिया जाए। कभी-कभी लगता है कि ऐसे कवियों का जीवन के सृजन में कोई विश्वास नहीं। वे अक्सर छात्र राजनीति के शिकार हो गए युवा लगते हैं, जो प्राय: दूसरों के कहने से अपनी राजनीतिक दिशा तय करते हैं।”9 उनके तापमान का आंकलन करने के लिए 100 डिग्री सेल्सियस भी संभवत: कम लग रही थी जिसके कारण यह भूल कर बैठे। लेकिन यह हिसाब न लगा सके कि इससे अधिक के तापमान पर पानी अब पानी नहीं रह जाता बल्कि उड़ कर आसमान में अदृश्य हो जाता है। फिर कहाँ तापमान और कहाँ पानी केवल बर्तन गर्माते रहिए।
समकालीन हिन्दी कविता में सातवां दशक एक ऐसा समय था जब वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्राय:सभी क्षेत्र में एक तनावपूर्ण अराजक परिस्थिति के दौर में गुजर रही थी और ‘आपात्काल’ की एक पृष्ठभूमि तैयार कर रही थी तब वह समाज में घटित हो रही ऐसी घटनाओं के प्रत्येक पहलुओं पर क्यों? कैसे? और किसलिये? को जानने के अपने उत्तरदायित्व से भाग कैसे सकती थी। चाहे इस क्षेत्र में कोई और साथ दे अथवा न दे। धूमिल के लिये ‘कविता सिर्फ शब्दों की बिसात नहीं/ वाणी की आँख है’ जो ‘अनुभव के नये-नये पृष्ठों पर/ भाषा के समर्थन में बूँदें गिरती हैं’ इसीलिए उसे भक्तिकालीन कबीर की तरह अकेले प्रतिकार करने के एवज में कठघरे में खड़े कर दिया गया। लेकिन उसे मालूम है :
"जवानी जब भी फैसले लेती है
गुस्सा जब भी सही जनून से उभड़ता है
हम साहस के एक नये तेवर से परिचित होते हैं
तब हमें आग के लिए
दूसरा नाम ढूढ़ना नहीं पड़ता है।"10 (आतिश के अनार सी वह लड़की : कल सुनना मुझे)
जनता के लिए उसकी प्रतिबद्धता सिनेमाई शो देखने के दौरान उफान मारती हुई देशभक्ति जनित वह आवेग नहीं है जो कि सिनेमा-घर से बाहर बुलबुले की तरह फट जाए। अनुभव जनित प्रतिबद्धता में गुस्सा क्षोभ एवं तनाव का होना स्वाभाविक है । इसी कारण वह क्रूर और अमानवीय होती व्यवस्था के ‘मेन’नब्ज़ की शिनाख्त कर पाने में सफल हो सका :
"मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अंगुली रखने से मना करते हैं।"11 (अकाल दर्शन : संसद से सड़क तक)
और इसी कारण व्यवस्था उसी पर काबिज़ होने लगी। और यह उसकी प्रश्नानुकूलता ही है कि इसके बावजूद भी इस क्रूर होती अमानवीय व्यवस्था के विरोध में वह सवाल पर सवाल करता रहा :
"वह कौन-सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र में मेरे पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।"12 (अकाल दर्शन : संसद से सड़क तक)
यह उसके कवि-कर्म की सक्रियता ही है कि एक नये युग के सृजन के लिए वह “बूढ़ों को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी/ चमड़े का मुहावरा सिखा रहा”13 है। देश की अनपढ़ जनता को ‘प्रौढ़ शिक्षा’ में उनकी सरलता का लाभ उठा रहे ‘सुराजी दलों’ की बदनीयत का पर्दाफाश करता है। और उन्हीं के देशज बतकही मुहावरेदार शैली के माध्यम से प्रतिरोध का स्वर भर देने को आतुर है :
“इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में
गीली मिट्टी की तरह--हाँ--हाँ--मत करो
तनो
अकड़ो
अमरबोलि की तरह मत जिओ,
जड़ पकड़ो”14 (प्रौढ़ शिक्षा : संसद से सड़क तक)
भारत की प्रजातांत्रिक और दफ्तरशाही संस्कृति प्रधान समाज में वह जनता से सीधे-सीधे संवाद करने को महत्व देने का पक्षधर है। जिसका मूलाधार तर्क है। इसीलिए बकौल धूमिल का कहना है ’इस वक्त सचाई को जानना/ विरोध में होना है।’ मुहावरे-सी लगने वाली यह बात कोई मामूली नहीं हो सकती। क्योंकि राजनीति के ऐसे क्रूरतम पक्षों को जानकर कोई भी सरल आदमी असहज महसूस करने लगता है। फिर भी वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए आतुर हो उठता है लेकिन देखता है कि उसका यह उतावलापन ’जनमत की चढ़ी हुई नदी में एक सड़े हुए काठ की तरह’ साबित हो रहा है। न प्रजा उसे समझ रही है और न प्रजातंत्र। अंग्रेजी के 8 अक्षर जैसी स्थिति हो गई है, दोनों ओर से डमरू-सा बजा दिया गया है। जनता द्वारा हकाल दिये जाने का कारण है :
"सुनो !
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सच्चाई
छोटी है । इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।"15 (पटकथा : संसद से सड़क तक)
वहीं दूसरी ओर ’मत-वर्षा के दादुर शोर’ में,
"मंत्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से
कुछ ज्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सब सिर्फ घास के
सामने होने की मजबूरी है
वर्ना उस भलेमानुस को
यह भी पता नहीं है कि विधानसभा-भवन
और अपने निजी बिस्तर के बीच
कितने जूतों की दूरी है।"16 (पटकथा : संसद से सड़क तक)
इसी कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो अवसाद से घिरकर वह कह उठता है,
"नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है । मैंने एक-एक को
परख लिया है ।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार...। मैंने जिसकी पूँछ
उठाई है उसको मादा
पाया है।"17 (पटकथा : संसद से सड़क तक)
क्या ऐसी अवस्था न रही होगी? जब मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ कहता है ‘अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे/ मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे’ लेकिन ऐसी परिस्थियों में भी पंजाबी कवि पाश आहत नहीं होता बल्कि दुगुने उत्साह से वह जोश भरने का काम करता है। इसी से उसकी कविता उच्चतर भाव के ‘प्लॉट’ में स्थान पा सकी है,
"हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े
**** हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता"18 (हम लड़ेंगे साथी/ संपूर्ण कविताएं : पाश)
लेकिन कविता में ‘प्रेम की कमी’ के कारण धूमिल जैसे ‘परिचित चेहरे को तत्सम शब्द की तरह अपरिचित कर देना’ मूल्याँकन का कैसा पैमाना है? जबकि दोनों ही ’श्री काकुलम’, ‘लोहा’, ‘अलंकारों के ओवरकोट पहने लोग’, और‘संस्कृति’ आदि पर समान रूप से कलम चला रहे होते हैं। और धूमिल के सामने तो ‘प्यार को पहले पेट की आग से होकर गुजरना पड़ता था’ जहाँ अभाव के कारण, "पहले उसे थाली खाती है/ फिर वह रोटी खाता है"19 और पुन: रोटी की जुगत में एक पुराने साइकिल में दफ्तर जाता है लेकिन,
"सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
‘ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को
चूमना--
देखो, फिर भूल गया।’"20 (किस्सा जनतंत्र : कल सुनना मुझे)
डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना ‘शुद्ध कविता के विरोध में’ धूमिल का उचित मूल्यांकन करते हैं, "अधिक से अधिक क्रूर और अमानवीय होती व्यवस्था के विरूद्ध कविता को एक प्रकार के नैतिक हस्तक्षेप का माध्यम बनाते हुए धूमिल ने अपना एक खास मुहावरा विकसित किया जिसका ऐतिहासिक महत्व है। धूमिल के बारे में यह कहना अतिरंजना नहीं माना जाएगा कि उन्होंने अपने समय को शब्द दिये। पहले से प्राप्त मुहावरे में, भाषा या काव्यभाषा में इतना बड़ा परिवर्तन लाने के लिए केवल साहस नहीं, नया काव्यात्मक विवेक भी अपेक्षित है। धूमिल इस काव्यात्मक विवेक का निश्चित प्रमाण देते हैं।"21 यह उसके गहन समाज-दर्शन का ही प्रतिफलन है जिससे वह संसद में भी रोटी से खेलने वाले तीसरे व्यक्ति को प्रश्नांकित करने से नहीं चूकता। धूमिल की भाषा के संदर्भ में विद्यानिवास मिश्र की उक्ति सटीक लगती है, "धूमिल की भाषा लड़ाई की भाषा है जरूर, पर इस लड़ाई में अकेलेपन की एक विथा है, क्योंकि धूमिल नकली लड़ाईयों के खिलाफ हैं, वे हर नकलीपन के ख़िलाफ हैं-
‘चुटकुलों सी घूमती लड़कियों के स्तन
नकली हैं, नकली हैं युवकों के दाँत ।’"22
और वीरता की प्रशंसा करने से नहीं कतराते :
"और ओ प्यारी लड़की!
कल तू जहाँ आतिश के अनार की तरह फूटकर
बिखर गई है ठीक वहीं से हम
आजादी की वर्षगाँठ का जश्न शुरू करते हैं।"23 (आतिश के अनार से वह लड़की : धूमिल)
‘मरणोत्तर धूमिल : एक कथा-यात्रा’ में राजशेखर द्वारा लिखी गई प्रसंग है- जब कलकत्ता की एक व्यवसायिक फर्म ‘मेसर्स तलवार ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड’ में, धूमिल ‘पासिंग आफिसर’ के रूप में कार्यरत थे। "अपनी इस नौकरी के दौरान-जब वह बीमार होकर, चारपाई पर पड़ा था। कम्पनी के मालिक मि. तलवार ने, उसे ट्रंकाल द्वारा तत्काल मोतीहारी से गोहाटी जाने का आदेश दिया। धूमिल ने मि. तलवार को बताया कि "मैं अस्वस्थ हूँ।"
इस पर क्रुद्ध होकर मि. तलवार ने कहा- "I am paying for my work, not for your
health."
प्रत्युत्तर में धूमिल ने हथौड़े की तरह चोट करते हुए कहा- "But I am working for my health, not for your work."
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अखिलेश गुप्ता,
हिंदी-विभाग,
डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर,
म.प्र.-470003, मो.8085913848 ,
ई-मेल : akhilesh.src@gmail.com
|
"सपनों की आँतें सब
चीरी गईं, फाड़ी गईं,
बाकी सब खोल है
ज़िंदगी में झोल है"25 (चांद का मुह टेढ़ा है : मुक्तिबोध)
धूमिल में यह अपने प्रखरतम रूप में पहुँच गई और अब वह आजादी के प्रतीक पर भी प्रश्न करने लगी। अनुभव की ऐसी बारिश में भींगकर वह कविता को जंगल से ढोते हुए जनता तक पहुँचा देता है। अत: कविता ऐसी जनप्रतिबद्धता से निखर उठी,
"सहना ही जीवन है जीवन का जीवन से द्वन्द है
मेरी हरियाली में मिट्टी की करुणा का छन्द है"26 (बारिस में भींग कर : कल सुनना मुझे)
संदर्भ ग्रंथ सूची :
1. संसद से सड़क तक/ धूमिल/ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली/ प्रथम संस्करण :
1972/ पृ. 9
2. वही/ पृ. 10
3. संपूर्ण कविताएँ : पाश/ संपादक तथा अनु. : चमनलाल/ आधार प्रकाशन पंचकूला/
प्रथम पेपरबैक्स संस्करण : 2011/ पृ. 59
4. वही/ पृ. 60
5. वही/ पृ. 40
6. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
संस्करण : 1977/ पृ. 80
7. वही/ पृ. 12
8. कवियों की पृथ्वी/ अरविन्द त्रिपाठी/ आधार प्रकाशन, पंचकूला/ प्रथम संस्करण :
2004/ पृ. 55-56
9. वही/ पृ. 56
10. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
संस्करण : 1977/ पृ. 22
11. संसद से सड़क तक/ धूमिल/ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली/ प्रथम संस्करण :
1972/ पृ. 19
12. वही/ पृ. 20
13. वही/ पृ. 27
14. वही/ पृ. 53
15. वही/ पृ. 124-25
16. वही/ पृ. 137
17. वही/ पृ. 138
18. संपूर्ण कविताएँ : पाश/ संपादक तथा अनु. : चमनलाल/ आधार प्रकाशन पंचकूला/
प्रथम पेपरबैक्स संस्करण : 2011/ पृ. 90-91
19. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
संस्करण : 1977/ पृ. 17
20. वही/ पृ. 18
21. समकालीन कविता का यथार्थ/ डॉ. परमानंद श्रीवास्तव/ हरियाणा साहित्य
अकादमी चण्डीगढ़/ प्रथम संस्करण : 1988/ पृ.122
22. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
संस्करण : 1977/ प्रस्तावना (घ)
23. वही/ पृ. 24
24. वही/ पृ. 14
25. गजानन मा. मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. : अशोक वाजपेयी/ राजकमल
पेपरबैक्स नई दिल्ली/ चौथा संस्करण : 1991/ पृ. 105
26. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
संस्करण : 1977/ पृ. 43
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