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Thursday, January 3, 2013
चिल्हर समस्या
दिनभर परिश्रम करने के बाद पशु-पक्षी सायंकाल विश्रान्ति हेतु बसेरे की ओर लौटने लगते हैं। गॉव में इस समय ग्वाला गायों को चराकर घर लाता है। ये गायें पगडण्डियों और कच्ची सडकों पर अपनी खुरों से ठण्ड में भी धूल के गुबार उड़ाते चले जाते हैं। इन उड़ती धूल तथा आकाश में अस्त होते सूरज की लालिमा से वहाँ का पूरा वातावरण सुन्दर लगने लगता है। झुण्ड में सबसे आगे रहने वाली गायें काफी समझदार होती हैं और बिल्कुल सीधी होती हैं उन्हें पेट भर चरकर वापस घर लौटने के अलावा और कोई प्रयोजन नहीं रहता। जरावस्था के कारण उभरी हुई कंकालवत् लाली गाय थक जाने से धीरे-धीरे आखिर में हॉकते ग्वाला के पास पहुँच जाती है । ग्वाला उसकी पूँछ मरोड़कर डण्डे से कोचकते हुये आगे धकेलता जाता है। बीच की गायें घर तक पहुँचने के लिये सामने चल रही गायों का अनुसरन करती रहती हैं। बछड़े उछल-कूद करते आगे बढ़ जाते हैं और रास्ता न मालूम होने से वे अपनी माँ के साथ-साथ चलने लगते हैं गायों की इन झुण्ड में साण्ड अपनी महत्ता दिखाते हुये गायों को अपने सींग से तितर-बितर कर देने से बछड़े माँ से बिछुड़ कर पीछे चले जाते हैं जहाँ ग्वाला की धत्-धत् की आवाज और उसके डण्डे से डरकर उछलते हुये वे फिर बीच में पहुँच जाते हैं। और जो झुण्ड से इतर इधर-उधर भागती सफेद-काली चितकबरी आकर्षक जवान देह के कारण सुन्दर लग रही है उसके गले में यह तीन फीट का लम्बा डण्डा क्यों लटकाया गया है? अरे हाँ! ये चितकबरी तो बड़ी चोरनी है पाँच-छ: दिन से ही तो शंकर के खेत में उगाये चने के फसल को तो आधे से ज्यादा चर चुकी है। इसलिये तो शंकर अब अपने घर से बच्चों के दुलारे कल्लू को लाकर खेत में बनाये झोपड़ी में रखने लगा है और डण्डे में तेल भी पिला लिया है। पिछले साल तो उसने इसी डण्डे से बगैर तेल पिलाये ही यदि किसी जानवर को मार देता तो माह भर उस जानवर के देह में उसका निशान बना रहता था। यह चितकबरी तो चंचल होने के साथ तेज दौड़ लेती है और भौंकते हुये दौड़ा रहे कल्लू को तो अपनी नुकीली सींग से घायल कर दी थी इसलिये कल्लू उसको देखकर भी भौंकता नहीं है। माथा पकड़कर तेल पिलायी इस डण्डे को हाथ में लिये बैठ जाने के अलावा शंकर के पास और चारा ही क्या रह गया है? चितकबरी पर अपने गुस्से को वह कैसे उतारे? अँय, ये शंकर पगला गया है क्या? डण्डा लिये दौड़-दौड़कर कहाँ भाग रहा है? ओह! इसने तो चितकबरी पर अपना डण्डा फेंक दिया है। डण्डा सामने चल रही भूरी गाय के पैर में लग गयी वह लड़खड़ा कर बैठ गयी चितकबरी फुर्ती से भाग गयी है उसे अब पकड़ पाना मुश्किल है। आज भी बुजुर्ग किसी व्यक्ति के ईमानदारी व सीधेपन से खुश होकर सामने चल रही इन्हीं गायों को लक्ष्य बनाकर उन्हें ’गऊ की तरह सीधा’ कहते हैं। गाँव में यह पी.एच.डी. की डिग्री के समतुल्य माना जाता है।
हिन्दी विषय में एम.ए. तृतीय सेमेस्टर का अंतिम परीक्षा दिलाकर बाहर निकलते समय ५ बजे से ही सर्दी के कारण सायंकाल का अहसास होने लगा था। शिक्षण विभाग से मुख्य मार्ग पर स्थित विश्वविद्यालयीन गेट तक साथ-साथ पैदल चलते हुये चतुष्टयी समूह में टिकेश्वर ने विनय का पेपर छीनते हुये कहा- "यह परीक्षा तो समाप्त हो चुका है, अब पी.एच.डी. प्रवेश और नेट परीक्षा की तैयारी करनी चाहिये।"
सहमति जताते हुये विनय ने ’हाँ’ तो कहा लेकिन उसे आज पढ़ाई से स्वतंत्रता चाहिये, का भाव भी उसके चेहरे से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। उसने बात मोड़ते हुये गाँव में प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा मिलने हेतु किये जाने वाले नाना प्रकार के उपायों को नमक-मिर्च लगाकर आकर्षक रूप से बताने लगा जिसे गिरधारी और मैं सभी बड़े मजे से सुनने लगे। परिसर के चौराहे पर बनायी गयी गुरु घासीदास की मूर्ति विश्वविद्यालय के नाम की सार्थकता का बोध कराता है। जहाँ से मुख्य-द्वार तक की ढलान पर पैदल चलने लगे।
बी.ए. के दिनों में सरिया से सारंगढ़ परीक्षा देने जाते वक्त बीच में गोमर्डा जंगल के पहाड़ी ढलान पहुँचने पर उतरते समय चरन कहा करता था- "हे कृष्ण! मोटर-सायकिल को अब बन्द कर दो।"
"हाँ पार्थ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।" कहकर मैं मोटर-सायकिल बन्द कर न्यूट्रल में रख देता और लगभग ३ कि.मी. दूर स्थित पुलिया तक उतर आते थे गाड़ी के रूकते-रूकते फिर चरन उपदेश की मुद्रा में कहता- "पार्थ! अब गाड़ी स्टार्ट करो।"
मेरे गाड़ी स्टार्ट करते ही वह फिर दायें हाथ की तर्जनी उँगली से सड़क की ओर इशारा करते हुए "इसे ६० की स्पीड में दौड़ाओ" कहकर सड़क के खाली होने का बोध कराता जिससे उत्साह से भरकर मैं फिर गाड़ी की गति बढ़ा लेता।
शैक्षणिक परिसर से मेन-गेट पहुँचते-पहुँचते बातचीत के मुद्दे पर विराम लगाते हुए टिकेश्वर ने कहा- "चल हऽट, ये सारी बातें पुराने जमाने की है आजकल तो प्रेमिका अपने प्रेमी को मिस् कॉल कर देती है तो प्रेमी उसे इमरजेंसी काल समझकर तुरंत फोन करता है और दोनों मिलकर गुप्त रूप से अभिसार का स्थान चुन लेते हैं।"
सड़क किनारे स्थित बन्द ठेले को देखकर मेरा धैर्य जबाब देने लगा और स्वमेव उस ओर दौड़ पड़ा। ठेले के पीछे पहुँचते ही अविलम्ब मैनें अपनी भागीरथी प्रवाहित कर दी और पुन: उनके साथ जा मिला। मेरे इन क्रियाकलापों को देखकर टिकेश्वर का कवि हृदय जाग उठा-
"दिल के जज्बातों को भला अब कैसे बयाँ करूँ/
लघुशंका जब सताने लगे फिर क्या शरम करूँ।"
सकुचाते हुए फिर हामी भरकर मैनें कहा- "सर्दी के मौसम में लोगों को बहुमूत्र होने लगता है क्योंकि इस मौसम में पसीना बनना बन्द हो जाता है नऽ।"
मुख्य सड़क पहुँचते ही विनय घर जाने हेतु शहर की ओर जाती हुई आटो में बैठ गया और गिरधारी भी आगे स्थित किराया पर लिये हुये कमरे की ओर बढ़ने लगा। टिकेश्वर तथा मैं अब (दायीं ओर) मुड़कर सड़क के दायीं ओर ही चलने लगे टिकेश्वर ने कहा- "मुझे तो सड़क के दायीं ओर चलने में अच्छा लगता है क्योंकि पीछे से आती हुई गाड़ियाँ ही अधिकतर ठोंककर या रौंदती चली जाती हैं जबकि सामने से आती हुई गाड़ियों को देखकर हम संभल जाते हैं।"
कौवे की कॉव-कॉव व सियार की हुऽऑ-हुऽऑ दोनों अवाजों को यदि मिला दिया जाय तो उससे जो आवाज निकलती है वहीं हुंऽव-हुँऽव की आवाज पीछे से आती हुई सुनाई देने लगी। शायद मंत्रीजी कहीं दौरे पर जा रहे हैं। "अरे! अरे! टिकेश्वर सड़क के एकदम किनारे आ जाओ, मंत्रीजी के आगे-पीछे चलने वाले पुलिस सड़क पर उनके लिये रास्ता बनाने के लिये चलती गाड़ी में खड़े होकर डण्डा घुमाते जाते हैं पड़ गया तो फिर सप्ताह भर के लिये उसका निशान रह जायेगा।"
हाय! कम से कम कौये और गीदड़ की मिश्रित हुंऽव-हुंऽव की आवाज तो पार हो गयी। दायीं ओर ही सड़क किनारे से कुछ दूरी पर स्थित झाड़ी की ओर से यह असह्य दुर्गन्ध कैसी आ रही है? शायद बस या किसी भारी वाहन के कुचलने के कारण कल बीच सड़क में यहाँ जो एक कुत्ता मरा पड़ा था उसे वहाँ किसी ने फेंक दिया है। नाक पर हथेली रखने के बावजूद दुर्गंध से व्याकुल हो जाने पर मैं तेजी से चलकर सड़क के बायीं ओर पहुँच गया। लेकिन टिकेश्वर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी इसलिये मुझसे कुछ दूर पीछे रह जाने पर बोला- "महराज! अब तो रूक जाइये।"
"मैं कोई महाराज वगैरह नहीं हूँ लेकिन हाँ अब यह तो समझ में आ गया कि आखिर दलित अपने साहित्य में स्वानुभूति की बात क्यों कहते हैं। भई जिस दुर्गंध से मुझे बैचेनी हो रही है उस दुर्गंध में उन्हें पलने-बढ़ने की मजबूरी से बड़ी व्यथित कर देने वाली बात और क्या हो सकती है।"
"हाँ, खैर चलो उबले अण्डे खा लेते हैं। आज सर्दी कल से कुछ ज्यादा है" कहकर जैकेट में लटकती हुयी टोपी पहनते हुये ठेले के पास टिकेश्वर पहुँच गया।
"नहीं, मुझे आगे डी.डी. होटल में गर्मा-गरम चाय पीना है" हाथ मलते हुये मैं आगे की ओर बढ़ने लगा।
"भूख लगने पर ही तो दाई-ददा (माँ-बाप) की याद आती है" थोड़े उँचे सुर में उसने कहा।
"वाकई दाई-ददा होटल की महँगाई माँ-बाप को याद करने पर मजबूर कर देती है।" प्रत्युत्तर मैं मैंने भी कुछ जोर से बोलते हुये कान में ईयरफोन लगाकर एफ़.एम. सुनते चलने लगा।
मुख्यमार्ग के सड़कों पर छुटपुट सड़कें वैसे ही मिल जाती हैं जैसे कि नदी में नहर तथा नालियाँ आकर मिल जाती हैं। सड़क के उस ओर एक सँकरी व छोटी सी सड़क आकर मिली है। हाथ में रूमाल लिये और कंधे पर बैग लटकाये वहाँ खड़ी छात्रा कहाँ जायेगी? जब सड़क पर गुजरने वाले प्रत्येक यात्री आकर्षित हो मुड़-मुड़कर उसे देख रहे हैं तब मैं क्यों न देखूँ? ऑय! मेरे देखने पर ही यह कैसा अवरोध। एक खाली कार वहाँ आकर क्यों रूक गयी। गाड़ी चलाने वाला वह युवा कार का दरवाजा खोल रहा है। वह आगे साथ में क्यों बैठ गयी। दोनों मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। दरवाजा बन्द होते ही कार धीरे-धीरे गति पकड़ ली। वहाँ खड़े कुछ लोग कार को अवाक् से देख रहे हैं। कार के पीछे काँच पर लिखा Love is Life अक्षर भी अब दृश्यहीन हो चुकी है। बढ़ते कदम पर अवरोध लगा कर होटल में बैठे लोगों के बीच में मैं खाली कुर्सी ढूंढने लगा। काउंटर के सामने खाली पड़ी कुर्सी की ओर जाते ही चाय का आर्डर देते हुये बैठ गया। स्वेटर और जैकेट पहने दो-चार व्यक्ति बाहर चुल्हे की तरफ पीठ किये खड़े होकर सिगरेट का कश खींचते चाय के साथ किसी मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। बीच टेबल की कुर्सियों पर बैठे जवान लड़के आपस में एक-दुसरे के मुँह पर सिगरेट के धुऎं का छल्ला फेंकते हुये अपनी प्रगाढ़ मित्रता में खो चुके हैं। उसमें से एक उठकर आर्डर माँगना चाहा लेकिन लड़खड़ाते हुये फिर बैठ गया। नशे में न संभल पाने की स्थिति में वह दोस्त के कंधे पर बायाँ हाथ रखकर कढ़ाही की चाशनी में डूबी हुई जलेबी को निकाल कर परात में रख रहे होटल के नौकर की ओर दायें हाथ से इशारा करते हुये P,P..Please give me two fif.fifty grams of those Indian sweets (Rouded Sweet) पाव भर जलेबी अँग्रेजी में आर्डर करने के बाद उसने कहा- "साला नशा नहीं चढ़ता चलो और लेने जाते हैं।" चाय पीते हुये बाहर धोने के लिये रखी कप-प्लेट की ओर आती गाय की ओर मेरे देखते ही काऊंटर से आवाज आने लगी- दौड़ा बेऽ साले! उधर गाय आ रहा है।
आठ-दस साल के लड़के इस वक्त शाम को हल्का-हल्का अंधेरा घिर आने से लुका-छिपी के खेल में दौड़ लगाते हैं। टूटे हुये बेंच पर बैठा लड़का फुर्ती से दौड़ पड़ा और धत्-धात् की आवाज से ही उस गाय को भगा दिया। करीब घुटने भर ऊँचे छोटे से काउंटर के पास रखी हुई प्लास्टिक कुर्सी पर बैठा लाफिंग बुद्ध जैसा भरा बदन वाला ४०-४५ साल का दुकानदार उसे देखकर गुटखा चबाते हुये हुँ-हूँऽ की छोटी सी हँसी हँसकर सामने काउंटर पर रखे हुये चॉकलेट डिब्बे और गुल्लक के बीच स्थित छोटे से गोलाकार फिश एक्वेरियम को देखने लगा।
मित्र मंडली में यारी-दोस्ती निभाते कोई यदि दो-चार बार किसी पाउच-गुटखा को खा ले तो उसके फ्लेवर का धीमा-जहर उसे आकर्षित कर लेता है। वह उसी गुटखे का फिर आदी हो जाता है। ऎसे ही आकर्षण का मायाजाल वह ग्राहकों पर इस छोटे-गोलाकार फिश एक्वेरियम से फैला रहा है। ओ.होऽ! काँच के इस गोल बर्तन में रखी मछलियों और उसके नीचे बिखरे रंगीन कंकड़ों से शायद वह सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करता है।
जलेबी मिलते ही हाथ में पकड़कर वह उठ खड़ा हुआ और दुकानदार की ओर देखते हुये- I have, i have no money please write dis this item on account कहने के बाद फिर अपने जेब से मोबाईल निकालकर- "पैसे मेरे पास अऽऽभी पइसे नऽहीं हैं आऽआऽप ये मोबाईल रख लो" बोलते हुये लड़खड़ाते काउंटर के पास दुकानदार की ओर मोबाईल रखे हाथ को बढ़ा दिया और फिर झटके से मोबाईल को अपने ही जेब में भरकर पैसे न होने का पूरा परिचय दे दिया। वापस दोस्तों की ओर मुड़कर कल वाकई पैसे देने का वायदा भी उसने किया है। इसिलिये वह दोस्तों को उठाकर इधर-उधर गिरते-फिसलते एक बार और लेने चला गया।
खुदा अपने गधों को जलेबियाँ खिला रहा है हर शाख पर उल्लू बैठा है। एफ.एम. के गानों पर बहुत समय से मेरा ध्यान हट जाने के कारण उसे बंद कर ईयरफोन जेब में रख लिया। चाय पीने के बाद उठकर दस रुपये का नोट दुकानदार को थमा दिया। पैसे काउंटर उपर रखे लकड़ी के गुल्लक में भरते हुये दुकानदार ने एक कागज के साथ दो चॉकलेट मुझे थमा दिया। कागज पर लिखे Rs. 3/- Hotel D.D. प्रो : डमरूधर को देखकर मैं असमंजस में पड़ गया। सप्ताह भर बचे नेट परीक्षा की तैयारी हेतु पेन में एक नया रिफिल लगाने के लिये मुझे पाँच रुपये की जरूरत है।
"ये सब अमानवीय कार्य हैं। मानवता के लिये आप मुझे चिल्हर लौटा दें।" कहकर कागज के कूपन व चॉकलेट को काउंटर पर रख दिया।
"चिल्हर नहीं है मेरे पास" गुल्लक देखे बिना ही विश्वास के साथ उसने कहा।
"देखिये न रहा होगा आपके पास"
"नहीं है न, जा चिल्हर ले के आ"
"पास में तो कोई स्टेशनरी दुकान नहीं है, मुझे अभी पाँच रूपये वाली एक रिफिल खरीदनी है।दस रूपये वापस दे दीजिये। मैं पाँच रुपये आपको बाद में दे दूँगा।"
"जा पहले पाँच ले के आ फिर दस रूपये को लेना" कहते हुये गुस्से में आकर होटल कूपन और चाकलेट को वह वापस रख लिया।
"एकाध बार काउंटर के गुल्लक को देख तो लिजिये न शायद रहा हो।"
"नहीं है न जा ले के आ चिल्हर" गुस्से का पारा चढ़ाते हुये अब चिल्लाकर कहा।
मैं धारक को पाँच रूपये अदा करने का वचन देता हूँ, पर्स में रखे छोटे से डायरी के कागज में यह लिखकर उसमें मैनें अपना हस्ताक्षर कर लिया और उसे थमाते हुये- "आज न हो सके तो कल तक आपको आपके पैसे जरूर दे दूँगा, प्लीज अभी मेरे पैसे लौटा दो।" कहकर मैं उनके सामने गिड़गिड़ाने लगा।
"साले हरामी, बक्... करता है।" बकते हुये उसने कॉलर पकड़कर जोर से एक तमाचा मेरे गाल पर मार दिया और चबा रहे गुटखे को मुझ पर थूकते हुए कहा- "जा अब तेरा पैसा भी नहीं दूँगा जो करना है कर ले।"
तमाचे की मार सामने से मैं दूर नीचे जमीन पर गिर पड़ा और गुटखे की थूक जैकेट पर आ गिरी। आँखों के सामने अंधेरा छा गया और जुगनू उड़ने लगे। कुछ ही देर में उठकर आँखों को हाथ से मलने पर ऑसू टपकने लगे। जैकेट व हाथ में गिरे हुये ऑसुओं को चमकते देखकर मेरे व्यथित मन ने सोचा कि क्या यह ऑसू कोई क्राँति नहीं ला सकता? क्या मेरे इस दुख को भगवान बुद्ध नहीं देख सकता या ईश्वर, अल्लाह या ईसा ये भी नहीं देख सकते। मेरे उठकर बाहर जाते वक्त चूल्हे की ओर पीठ किये खड़े व्यक्ति में से एक ने मुझसे कहा- "पाँच रूपये के लिये उससे क्यों उलझता है?"
"सवाल केवल पाँच रूपये का नहीं है चाचा। बस में, किराना दुकान, सब्जी मार्केट, स्टेशनरी ये होटल सब जगह तो चिल्हर समस्या से हम ही पिसा जाते हैं। महँगाई के साथ-साथ इन चिल्हर समस्या में हमें ही तो लूटा जाता है।" जैकेट पर लगे गुटखे की थूक को रुमाल से पोंछ्ते हुये धूल झड़ाकर मैंने बोला।
"हाँ तुम सही बोल रहे हो लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं? तुम्हें शायद पेन खरीदना है न यह बीस रूपये रख लो।" आगे बढ़कर उस अजनबी व्यक्ति ने जेब में मेरे मना करने के बावजूद रुपये रख दिये।
हिन्दी विषय में एम.ए. तृतीय सेमेस्टर का अंतिम परीक्षा दिलाकर बाहर निकलते समय ५ बजे से ही सर्दी के कारण सायंकाल का अहसास होने लगा था। शिक्षण विभाग से मुख्य मार्ग पर स्थित विश्वविद्यालयीन गेट तक साथ-साथ पैदल चलते हुये चतुष्टयी समूह में टिकेश्वर ने विनय का पेपर छीनते हुये कहा- "यह परीक्षा तो समाप्त हो चुका है, अब पी.एच.डी. प्रवेश और नेट परीक्षा की तैयारी करनी चाहिये।"
सहमति जताते हुये विनय ने ’हाँ’ तो कहा लेकिन उसे आज पढ़ाई से स्वतंत्रता चाहिये, का भाव भी उसके चेहरे से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। उसने बात मोड़ते हुये गाँव में प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा मिलने हेतु किये जाने वाले नाना प्रकार के उपायों को नमक-मिर्च लगाकर आकर्षक रूप से बताने लगा जिसे गिरधारी और मैं सभी बड़े मजे से सुनने लगे। परिसर के चौराहे पर बनायी गयी गुरु घासीदास की मूर्ति विश्वविद्यालय के नाम की सार्थकता का बोध कराता है। जहाँ से मुख्य-द्वार तक की ढलान पर पैदल चलने लगे।
बी.ए. के दिनों में सरिया से सारंगढ़ परीक्षा देने जाते वक्त बीच में गोमर्डा जंगल के पहाड़ी ढलान पहुँचने पर उतरते समय चरन कहा करता था- "हे कृष्ण! मोटर-सायकिल को अब बन्द कर दो।"
"हाँ पार्थ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।" कहकर मैं मोटर-सायकिल बन्द कर न्यूट्रल में रख देता और लगभग ३ कि.मी. दूर स्थित पुलिया तक उतर आते थे गाड़ी के रूकते-रूकते फिर चरन उपदेश की मुद्रा में कहता- "पार्थ! अब गाड़ी स्टार्ट करो।"
मेरे गाड़ी स्टार्ट करते ही वह फिर दायें हाथ की तर्जनी उँगली से सड़क की ओर इशारा करते हुए "इसे ६० की स्पीड में दौड़ाओ" कहकर सड़क के खाली होने का बोध कराता जिससे उत्साह से भरकर मैं फिर गाड़ी की गति बढ़ा लेता।
शैक्षणिक परिसर से मेन-गेट पहुँचते-पहुँचते बातचीत के मुद्दे पर विराम लगाते हुए टिकेश्वर ने कहा- "चल हऽट, ये सारी बातें पुराने जमाने की है आजकल तो प्रेमिका अपने प्रेमी को मिस् कॉल कर देती है तो प्रेमी उसे इमरजेंसी काल समझकर तुरंत फोन करता है और दोनों मिलकर गुप्त रूप से अभिसार का स्थान चुन लेते हैं।"
सड़क किनारे स्थित बन्द ठेले को देखकर मेरा धैर्य जबाब देने लगा और स्वमेव उस ओर दौड़ पड़ा। ठेले के पीछे पहुँचते ही अविलम्ब मैनें अपनी भागीरथी प्रवाहित कर दी और पुन: उनके साथ जा मिला। मेरे इन क्रियाकलापों को देखकर टिकेश्वर का कवि हृदय जाग उठा-
"दिल के जज्बातों को भला अब कैसे बयाँ करूँ/
लघुशंका जब सताने लगे फिर क्या शरम करूँ।"
सकुचाते हुए फिर हामी भरकर मैनें कहा- "सर्दी के मौसम में लोगों को बहुमूत्र होने लगता है क्योंकि इस मौसम में पसीना बनना बन्द हो जाता है नऽ।"
मुख्य सड़क पहुँचते ही विनय घर जाने हेतु शहर की ओर जाती हुई आटो में बैठ गया और गिरधारी भी आगे स्थित किराया पर लिये हुये कमरे की ओर बढ़ने लगा। टिकेश्वर तथा मैं अब (दायीं ओर) मुड़कर सड़क के दायीं ओर ही चलने लगे टिकेश्वर ने कहा- "मुझे तो सड़क के दायीं ओर चलने में अच्छा लगता है क्योंकि पीछे से आती हुई गाड़ियाँ ही अधिकतर ठोंककर या रौंदती चली जाती हैं जबकि सामने से आती हुई गाड़ियों को देखकर हम संभल जाते हैं।"
कौवे की कॉव-कॉव व सियार की हुऽऑ-हुऽऑ दोनों अवाजों को यदि मिला दिया जाय तो उससे जो आवाज निकलती है वहीं हुंऽव-हुँऽव की आवाज पीछे से आती हुई सुनाई देने लगी। शायद मंत्रीजी कहीं दौरे पर जा रहे हैं। "अरे! अरे! टिकेश्वर सड़क के एकदम किनारे आ जाओ, मंत्रीजी के आगे-पीछे चलने वाले पुलिस सड़क पर उनके लिये रास्ता बनाने के लिये चलती गाड़ी में खड़े होकर डण्डा घुमाते जाते हैं पड़ गया तो फिर सप्ताह भर के लिये उसका निशान रह जायेगा।"
हाय! कम से कम कौये और गीदड़ की मिश्रित हुंऽव-हुंऽव की आवाज तो पार हो गयी। दायीं ओर ही सड़क किनारे से कुछ दूरी पर स्थित झाड़ी की ओर से यह असह्य दुर्गन्ध कैसी आ रही है? शायद बस या किसी भारी वाहन के कुचलने के कारण कल बीच सड़क में यहाँ जो एक कुत्ता मरा पड़ा था उसे वहाँ किसी ने फेंक दिया है। नाक पर हथेली रखने के बावजूद दुर्गंध से व्याकुल हो जाने पर मैं तेजी से चलकर सड़क के बायीं ओर पहुँच गया। लेकिन टिकेश्वर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी इसलिये मुझसे कुछ दूर पीछे रह जाने पर बोला- "महराज! अब तो रूक जाइये।"
"मैं कोई महाराज वगैरह नहीं हूँ लेकिन हाँ अब यह तो समझ में आ गया कि आखिर दलित अपने साहित्य में स्वानुभूति की बात क्यों कहते हैं। भई जिस दुर्गंध से मुझे बैचेनी हो रही है उस दुर्गंध में उन्हें पलने-बढ़ने की मजबूरी से बड़ी व्यथित कर देने वाली बात और क्या हो सकती है।"
"हाँ, खैर चलो उबले अण्डे खा लेते हैं। आज सर्दी कल से कुछ ज्यादा है" कहकर जैकेट में लटकती हुयी टोपी पहनते हुये ठेले के पास टिकेश्वर पहुँच गया।
"नहीं, मुझे आगे डी.डी. होटल में गर्मा-गरम चाय पीना है" हाथ मलते हुये मैं आगे की ओर बढ़ने लगा।
"भूख लगने पर ही तो दाई-ददा (माँ-बाप) की याद आती है" थोड़े उँचे सुर में उसने कहा।
"वाकई दाई-ददा होटल की महँगाई माँ-बाप को याद करने पर मजबूर कर देती है।" प्रत्युत्तर मैं मैंने भी कुछ जोर से बोलते हुये कान में ईयरफोन लगाकर एफ़.एम. सुनते चलने लगा।
मुख्यमार्ग के सड़कों पर छुटपुट सड़कें वैसे ही मिल जाती हैं जैसे कि नदी में नहर तथा नालियाँ आकर मिल जाती हैं। सड़क के उस ओर एक सँकरी व छोटी सी सड़क आकर मिली है। हाथ में रूमाल लिये और कंधे पर बैग लटकाये वहाँ खड़ी छात्रा कहाँ जायेगी? जब सड़क पर गुजरने वाले प्रत्येक यात्री आकर्षित हो मुड़-मुड़कर उसे देख रहे हैं तब मैं क्यों न देखूँ? ऑय! मेरे देखने पर ही यह कैसा अवरोध। एक खाली कार वहाँ आकर क्यों रूक गयी। गाड़ी चलाने वाला वह युवा कार का दरवाजा खोल रहा है। वह आगे साथ में क्यों बैठ गयी। दोनों मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। दरवाजा बन्द होते ही कार धीरे-धीरे गति पकड़ ली। वहाँ खड़े कुछ लोग कार को अवाक् से देख रहे हैं। कार के पीछे काँच पर लिखा Love is Life अक्षर भी अब दृश्यहीन हो चुकी है। बढ़ते कदम पर अवरोध लगा कर होटल में बैठे लोगों के बीच में मैं खाली कुर्सी ढूंढने लगा। काउंटर के सामने खाली पड़ी कुर्सी की ओर जाते ही चाय का आर्डर देते हुये बैठ गया। स्वेटर और जैकेट पहने दो-चार व्यक्ति बाहर चुल्हे की तरफ पीठ किये खड़े होकर सिगरेट का कश खींचते चाय के साथ किसी मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। बीच टेबल की कुर्सियों पर बैठे जवान लड़के आपस में एक-दुसरे के मुँह पर सिगरेट के धुऎं का छल्ला फेंकते हुये अपनी प्रगाढ़ मित्रता में खो चुके हैं। उसमें से एक उठकर आर्डर माँगना चाहा लेकिन लड़खड़ाते हुये फिर बैठ गया। नशे में न संभल पाने की स्थिति में वह दोस्त के कंधे पर बायाँ हाथ रखकर कढ़ाही की चाशनी में डूबी हुई जलेबी को निकाल कर परात में रख रहे होटल के नौकर की ओर दायें हाथ से इशारा करते हुये P,P..Please give me two fif.fifty grams of those Indian sweets (Rouded Sweet) पाव भर जलेबी अँग्रेजी में आर्डर करने के बाद उसने कहा- "साला नशा नहीं चढ़ता चलो और लेने जाते हैं।" चाय पीते हुये बाहर धोने के लिये रखी कप-प्लेट की ओर आती गाय की ओर मेरे देखते ही काऊंटर से आवाज आने लगी- दौड़ा बेऽ साले! उधर गाय आ रहा है।
आठ-दस साल के लड़के इस वक्त शाम को हल्का-हल्का अंधेरा घिर आने से लुका-छिपी के खेल में दौड़ लगाते हैं। टूटे हुये बेंच पर बैठा लड़का फुर्ती से दौड़ पड़ा और धत्-धात् की आवाज से ही उस गाय को भगा दिया। करीब घुटने भर ऊँचे छोटे से काउंटर के पास रखी हुई प्लास्टिक कुर्सी पर बैठा लाफिंग बुद्ध जैसा भरा बदन वाला ४०-४५ साल का दुकानदार उसे देखकर गुटखा चबाते हुये हुँ-हूँऽ की छोटी सी हँसी हँसकर सामने काउंटर पर रखे हुये चॉकलेट डिब्बे और गुल्लक के बीच स्थित छोटे से गोलाकार फिश एक्वेरियम को देखने लगा।
मित्र मंडली में यारी-दोस्ती निभाते कोई यदि दो-चार बार किसी पाउच-गुटखा को खा ले तो उसके फ्लेवर का धीमा-जहर उसे आकर्षित कर लेता है। वह उसी गुटखे का फिर आदी हो जाता है। ऎसे ही आकर्षण का मायाजाल वह ग्राहकों पर इस छोटे-गोलाकार फिश एक्वेरियम से फैला रहा है। ओ.होऽ! काँच के इस गोल बर्तन में रखी मछलियों और उसके नीचे बिखरे रंगीन कंकड़ों से शायद वह सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करता है।
जलेबी मिलते ही हाथ में पकड़कर वह उठ खड़ा हुआ और दुकानदार की ओर देखते हुये- I have, i have no money please write dis this item on account कहने के बाद फिर अपने जेब से मोबाईल निकालकर- "पैसे मेरे पास अऽऽभी पइसे नऽहीं हैं आऽआऽप ये मोबाईल रख लो" बोलते हुये लड़खड़ाते काउंटर के पास दुकानदार की ओर मोबाईल रखे हाथ को बढ़ा दिया और फिर झटके से मोबाईल को अपने ही जेब में भरकर पैसे न होने का पूरा परिचय दे दिया। वापस दोस्तों की ओर मुड़कर कल वाकई पैसे देने का वायदा भी उसने किया है। इसिलिये वह दोस्तों को उठाकर इधर-उधर गिरते-फिसलते एक बार और लेने चला गया।
खुदा अपने गधों को जलेबियाँ खिला रहा है हर शाख पर उल्लू बैठा है। एफ.एम. के गानों पर बहुत समय से मेरा ध्यान हट जाने के कारण उसे बंद कर ईयरफोन जेब में रख लिया। चाय पीने के बाद उठकर दस रुपये का नोट दुकानदार को थमा दिया। पैसे काउंटर उपर रखे लकड़ी के गुल्लक में भरते हुये दुकानदार ने एक कागज के साथ दो चॉकलेट मुझे थमा दिया। कागज पर लिखे Rs. 3/- Hotel D.D. प्रो : डमरूधर को देखकर मैं असमंजस में पड़ गया। सप्ताह भर बचे नेट परीक्षा की तैयारी हेतु पेन में एक नया रिफिल लगाने के लिये मुझे पाँच रुपये की जरूरत है।
"ये सब अमानवीय कार्य हैं। मानवता के लिये आप मुझे चिल्हर लौटा दें।" कहकर कागज के कूपन व चॉकलेट को काउंटर पर रख दिया।
"चिल्हर नहीं है मेरे पास" गुल्लक देखे बिना ही विश्वास के साथ उसने कहा।
"देखिये न रहा होगा आपके पास"
"नहीं है न, जा चिल्हर ले के आ"
"पास में तो कोई स्टेशनरी दुकान नहीं है, मुझे अभी पाँच रूपये वाली एक रिफिल खरीदनी है।दस रूपये वापस दे दीजिये। मैं पाँच रुपये आपको बाद में दे दूँगा।"
"जा पहले पाँच ले के आ फिर दस रूपये को लेना" कहते हुये गुस्से में आकर होटल कूपन और चाकलेट को वह वापस रख लिया।
"एकाध बार काउंटर के गुल्लक को देख तो लिजिये न शायद रहा हो।"
"नहीं है न जा ले के आ चिल्हर" गुस्से का पारा चढ़ाते हुये अब चिल्लाकर कहा।
मैं धारक को पाँच रूपये अदा करने का वचन देता हूँ, पर्स में रखे छोटे से डायरी के कागज में यह लिखकर उसमें मैनें अपना हस्ताक्षर कर लिया और उसे थमाते हुये- "आज न हो सके तो कल तक आपको आपके पैसे जरूर दे दूँगा, प्लीज अभी मेरे पैसे लौटा दो।" कहकर मैं उनके सामने गिड़गिड़ाने लगा।
"साले हरामी, बक्... करता है।" बकते हुये उसने कॉलर पकड़कर जोर से एक तमाचा मेरे गाल पर मार दिया और चबा रहे गुटखे को मुझ पर थूकते हुए कहा- "जा अब तेरा पैसा भी नहीं दूँगा जो करना है कर ले।"
तमाचे की मार सामने से मैं दूर नीचे जमीन पर गिर पड़ा और गुटखे की थूक जैकेट पर आ गिरी। आँखों के सामने अंधेरा छा गया और जुगनू उड़ने लगे। कुछ ही देर में उठकर आँखों को हाथ से मलने पर ऑसू टपकने लगे। जैकेट व हाथ में गिरे हुये ऑसुओं को चमकते देखकर मेरे व्यथित मन ने सोचा कि क्या यह ऑसू कोई क्राँति नहीं ला सकता? क्या मेरे इस दुख को भगवान बुद्ध नहीं देख सकता या ईश्वर, अल्लाह या ईसा ये भी नहीं देख सकते। मेरे उठकर बाहर जाते वक्त चूल्हे की ओर पीठ किये खड़े व्यक्ति में से एक ने मुझसे कहा- "पाँच रूपये के लिये उससे क्यों उलझता है?"
"सवाल केवल पाँच रूपये का नहीं है चाचा। बस में, किराना दुकान, सब्जी मार्केट, स्टेशनरी ये होटल सब जगह तो चिल्हर समस्या से हम ही पिसा जाते हैं। महँगाई के साथ-साथ इन चिल्हर समस्या में हमें ही तो लूटा जाता है।" जैकेट पर लगे गुटखे की थूक को रुमाल से पोंछ्ते हुये धूल झड़ाकर मैंने बोला।
"हाँ तुम सही बोल रहे हो लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं? तुम्हें शायद पेन खरीदना है न यह बीस रूपये रख लो।" आगे बढ़कर उस अजनबी व्यक्ति ने जेब में मेरे मना करने के बावजूद रुपये रख दिये।
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