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Wednesday, October 5, 2011
असंतोष : विध्वंसात्मक या संरचनात्मक
यदि हमें मदिरा पीने का ही शौक है तो इतनी अधिक मात्रा में पीयें कि जब तक हम स्वयं ही लड़खड़ाकर भूमि में न गिर पड़ें और इस दौरान यदि हमें होश आ गया और हम उठ खड़े हुये तो फिर पीना शुरु कर देना चाहिये क्योंकि यहाँ किसी का भी पुनर्जन्म नहीं होता है । यह मैं नहीं अपितु प्रसिद्ध दार्शनिक चार्वाक ने कहा है -
चार्वाक के इस दार्शनिक विचारधारा को पढ़कर निश्चित ही हम अपनी हँसी रोक नहीं पाते और कहते हैं कि यह कथन तो बड़ा सटीक है और मदिरापान करने वाला इस उक्ति को सुन ले तो उसके आत्मबल में तो अब दुगुनी वृद्धि हो जाती है और वह बड़ी ही तन्मयता से अपनी खुराक ही बढ़ा लेता है क्योंकि उसके आँखों में अब तक जो परदा पड़ा रहता है कि - शराब बुरी लत है, वगैरह । पुनर्जन्म न होने की बात सुनकर वे सभी परदे आँखों से ओझल हो जाते हैं इसलिये वह अपने इस शौक से पूर्णरूपेण संतुष्टि पाने तक पीता ही रहता है..... लेकिन जरा सोचिये ! क्या कभी कोई शराबी पूर्ण रूपेण मदिरापान से संतुष्टि प्राप्त कर सका है ?
ऐसा धारणा रही है कि स्वर्ग में भी अमरत्व प्राप्त देवगण विषय-वासना की सरिता में दिन-रात निग्मन रहते हैं । छायावाद के आधार स्तंभ कविवर जयशंकर प्रसाद जी कि कालजयी कृति "कामायनी" की एक पंक्ति दृष्टव्य है -
यदि अमरत्व प्राप्त देवगण विषय-वासना में लीन रहने के बावजूद भी कभी संतुष्टि प्राप्त न कर सके बल्कि असंतुष्टि और विकराल रूप धारण कर लेती है और अंत में अपनी ही ज्वाला से जल कर सर्वनाश हो गये । जिसे प्रसाद जी कल्पना बिम्बों के माध्यम से पूरी तरह अभिव्यक्त कर दिये हैं -
विकल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये ।
आह! जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले गये ॥
फिर मानव को तो तृप्ति कभी भी किसी भी वस्तु से नहीं मिल पाती है लेकिन वह अपनी तुष्टि के लिये नाना प्रकार के प्रयत्न करता रहता है । कभी वह इसी संतुष्टि को पाने के लिये ही अकूत दौलत इकट्ठा करता चला जाता है । अकूत संपदा को पाने के बावजूद भी जब उसे तृप्ति हासिल नहीं होती तब वह संतुष्टि पाने के उद्देश्य ही महँगी से महँगी वस्तुएं दान व भेंट करता है और दुगुनी उत्साह से और भी अधिक संपत्ति अर्जित कर लेना चाहता है लेकिन द्रौपदी के चीर की भांति असंतुष्टि बढ़ती ही चली जाती है ।असंतुष्टि यदि ऐसी ही बुरी भावनाओं के प्रति हो तब निश्चय ही स्वयं को पतन के गर्त में धकेलती जाती है । जिससे वह अच्छाई-बुराई की चिन्ता किये बिना स्वयं की तुष्टि हेतु किसी भी अनैतिक कार्यों को करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता । आज असंतुष्टि के कारण ही देश में रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, जमाखोरी, भ्रष्टाचार जैसी व्यापक बुराईयाँ जड़ जमाकर बैठ गयी हैं । इसी कारणवश मनुष्य अधिक से अधिक भौतिक साधनों का उपभोग करना चाहता है इस हेतु वह अपनी जीवनदायिनी "माँ" समरूप प्रकृति का भी दोहन करने में वह नहीं कतराता जिसका भयावह दुष्परिणाम उसे स्वयं को ही ग्लोबल वार्मिंग के रूप में भुगतना पड़ता है, ओजोन-परत के स्तर में कमी के कारण फैलने वाली रेडियशन से कैंसर, औद्योगिकीकरण से उत्पन्न धुयें में मानव का दम घुटना व अवांछित शोर पैदा कर अपनी ही जाति को बहरा बनाने पर उतारू हो जाने के बावजूद क्या वह संतुष्ट हो सका है ? दुसरी बात यह कि चार्वाक के दर्शन का गूढ़तम रहस्य समझें तो इसका सही निष्कर्ष हमारे सामने उपस्थित हो जाता है कि इसी को ही यदि हम इतनी ही तन्मयता के साथ सही दिशा में लगा दें तो हमें कहीं ज्यादा संतुष्टि प्राप्त होती है, जिसे कि पूरा महाकाव्य लिखकर भी हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते । परतंत्र भारत में अंग्रेजी शासन के अत्याचारों व तानाशाही रवैयों से आहत गांधीजी ने भी उनसे अपनी असंतुष्टि को ही सत्याग्रह, अनशन इत्यादि के माध्यम से व्यक्त किया । उचित मार्ग में किया यह असंतोष धीरे-धीरे व्यापक रूप से बलवती होकर पूरे भारत के जनमानस तक पहँच गया जिससे अंग्रेजों को इस भारत से पलायन करना ही पड़ा । इसी प्रकार यदि असंतोष को ज्ञानार्जन करने में लगाते हैं तो वह मनुष्य को कालिदास जैसे महान् विभूतियां बना देती हैं जो पुनर्जन्म न होने के बावजूद भी इस धरा पर सदा के लिये अमर बन जाते हैं । सही दिशा में की जाने वाली असंतुष्टि से ही नवीन आविष्कार करने में हम सक्षम हो जाते हैं । फिर उचित-अनुचित का यह भेद तो एक अनपढ़ व्यक्ति भी कर सकता है लेकिन आज युवा केवल आधुनिकता के रंग से ही तृप्ति पाने की कोशिश करने में ही लगे हुये हैं । क्या आधुनिकता के इस रंगीन चकाचौंध को अधिक से अधिक अर्जन कर युवा पीढ़ी संतुष्ट हो सकता है ? युवा पीढ़ी के मन की असंतुष्टि को आज सार्थक एवं रचनात्मक दिशा में लगाने की जरूरत है । घर बैठे ही आज युवा इस युगीन तकनीकी व्यवस्था के माध्यम से ज्ञानार्जन कर सकते हैं । तत्पश्चात् यही युवा पीढ़ी अपनी असंतुष्टि को रचनात्मक दिशा में लगाकर कई प्रकार की कलात्मक व अकल्पनीय अनुसंधान कर पूरे विश्व को सुंदर व साकार बना सकता है । अब कह तो यही सकते हैं कि असंतोष रूपी महल के वातायन तो खुले हुये हैं जिसे आत्मसात् कर वह विध्वंसक बन कार्य करे या रचनात्मक कार्य करे । इसी कारण भी श्रीमती इंदिरा गाँधी जी भी कहतीं थीं कि - "यदि की भावना को लगन व धैर्य से रचनात्मक शक्ति में न बदला जाये तो वह खतरनाक भी हो सकती है" |
विकल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये ।
आह! जले अपनी ज्वाला से, फिर वे जल में गले गये ॥
फिर मानव को तो तृप्ति कभी भी किसी भी वस्तु से नहीं मिल पाती है लेकिन वह अपनी तुष्टि के लिये नाना प्रकार के प्रयत्न करता रहता है । कभी वह इसी संतुष्टि को पाने के लिये ही अकूत दौलत इकट्ठा करता चला जाता है । अकूत संपदा को पाने के बावजूद भी जब उसे तृप्ति हासिल नहीं होती तब वह संतुष्टि पाने के उद्देश्य ही महँगी से महँगी वस्तुएं दान व भेंट करता है और दुगुनी उत्साह से और भी अधिक संपत्ति अर्जित कर लेना चाहता है लेकिन द्रौपदी के चीर की भांति असंतुष्टि बढ़ती ही चली जाती है ।असंतुष्टि यदि ऐसी ही बुरी भावनाओं के प्रति हो तब निश्चय ही स्वयं को पतन के गर्त में धकेलती जाती है । जिससे वह अच्छाई-बुराई की चिन्ता किये बिना स्वयं की तुष्टि हेतु किसी भी अनैतिक कार्यों को करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता । आज असंतुष्टि के कारण ही देश में रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, जमाखोरी, भ्रष्टाचार जैसी व्यापक बुराईयाँ जड़ जमाकर बैठ गयी हैं । इसी कारणवश मनुष्य अधिक से अधिक भौतिक साधनों का उपभोग करना चाहता है इस हेतु वह अपनी जीवनदायिनी "माँ" समरूप प्रकृति का भी दोहन करने में वह नहीं कतराता जिसका भयावह दुष्परिणाम उसे स्वयं को ही ग्लोबल वार्मिंग के रूप में भुगतना पड़ता है, ओजोन-परत के स्तर में कमी के कारण फैलने वाली रेडियशन से कैंसर, औद्योगिकीकरण से उत्पन्न धुयें में मानव का दम घुटना व अवांछित शोर पैदा कर अपनी ही जाति को बहरा बनाने पर उतारू हो जाने के बावजूद क्या वह संतुष्ट हो सका है ? दुसरी बात यह कि चार्वाक के दर्शन का गूढ़तम रहस्य समझें तो इसका सही निष्कर्ष हमारे सामने उपस्थित हो जाता है कि इसी को ही यदि हम इतनी ही तन्मयता के साथ सही दिशा में लगा दें तो हमें कहीं ज्यादा संतुष्टि प्राप्त होती है, जिसे कि पूरा महाकाव्य लिखकर भी हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते । परतंत्र भारत में अंग्रेजी शासन के अत्याचारों व तानाशाही रवैयों से आहत गांधीजी ने भी उनसे अपनी असंतुष्टि को ही सत्याग्रह, अनशन इत्यादि के माध्यम से व्यक्त किया । उचित मार्ग में किया यह असंतोष धीरे-धीरे व्यापक रूप से बलवती होकर पूरे भारत के जनमानस तक पहँच गया जिससे अंग्रेजों को इस भारत से पलायन करना ही पड़ा । इसी प्रकार यदि असंतोष को ज्ञानार्जन करने में लगाते हैं तो वह मनुष्य को कालिदास जैसे महान् विभूतियां बना देती हैं जो पुनर्जन्म न होने के बावजूद भी इस धरा पर सदा के लिये अमर बन जाते हैं । सही दिशा में की जाने वाली असंतुष्टि से ही नवीन आविष्कार करने में हम सक्षम हो जाते हैं । फिर उचित-अनुचित का यह भेद तो एक अनपढ़ व्यक्ति भी कर सकता है लेकिन आज युवा केवल आधुनिकता के रंग से ही तृप्ति पाने की कोशिश करने में ही लगे हुये हैं । क्या आधुनिकता के इस रंगीन चकाचौंध को अधिक से अधिक अर्जन कर युवा पीढ़ी संतुष्ट हो सकता है ? युवा पीढ़ी के मन की असंतुष्टि को आज सार्थक एवं रचनात्मक दिशा में लगाने की जरूरत है । घर बैठे ही आज युवा इस युगीन तकनीकी व्यवस्था के माध्यम से ज्ञानार्जन कर सकते हैं । तत्पश्चात् यही युवा पीढ़ी अपनी असंतुष्टि को रचनात्मक दिशा में लगाकर कई प्रकार की कलात्मक व अकल्पनीय अनुसंधान कर पूरे विश्व को सुंदर व साकार बना सकता है । अब कह तो यही सकते हैं कि असंतोष रूपी महल के वातायन तो खुले हुये हैं जिसे आत्मसात् कर वह विध्वंसक बन कार्य करे या रचनात्मक कार्य करे । इसी कारण भी श्रीमती इंदिरा गाँधी जी भी कहतीं थीं कि - "यदि की भावना को लगन व धैर्य से रचनात्मक शक्ति में न बदला जाये तो वह खतरनाक भी हो सकती है" |
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